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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध ................................................ बोलते हुए जो जैसा है उसको वैसा ही बतलाए अर्थात् सावधानी पूर्वक यथार्थ एवं निर्दोष वचन का ही प्रयोग करे।
यहाँ पर पांच इन्द्रियों के विषयों का कथन किया गया है - १. श्रोत्रेन्द्रिय के ३ विषय - जीव शब्द, अजीव शब्द और मिश्र शब्द। २. चक्षुरिन्द्रिय के ५ विषय - काला, नीला, लाल, पीला, सफेद वर्ण। ३. घ्राणेन्द्रिय के २ विषय - सुगन्ध और दुर्गन्ध।
४. रसनेन्द्रिय के ५ विषय - तिक्त (तीखा), कटु (कडवा), कषैला, आम्बिल (खट्टा), मधुर (मीठा)।
५. स्पशनेन्द्रिय के ८ विषय - कर्कश (खुर्दरा-कठोर), मृदु (कोमल-मुंहाला), लघु (हलका), गुरु (भारी), स्निग्ध (चीकना), रूक्ष (रूखा), शीत (ठण्डा), उष्ण (गरम)। __ ये पांच इन्द्रियों के तेईस विषय हैं और दो सौ चालीस विकार होते हैं इनका विस्तृत वर्णन स्थानाङ्ग सूत्र के पांचवें ठाणे में है। ___यहाँ पर पहले सूत्र में राग द्वेष युक्त भावों से 'सुशब्द' आदि को सुशब्द आदि कहने
का निषेध किया है। अगले सूत्र में वस्तु स्थिति का यथार्थ निरूपण करते हुए तटस्थ भावपूर्वक सुशब्द को सुशब्द आदि कह सकना बताया है। भाषा बोलने का विवेक बताया है।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा वंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च अणुवीइ णिट्ठाभासी णिसम्मभासी अतुरियभासी विवेगभासी समियाए संजए भासं भासिज्जा॥ एयं खलु तस्स भिक्खुस्स वा भिक्खुणीए वा सामग्गिय० ॥त्ति बेमि॥१४०॥
॥बीओ उहेसो समत्तो॥
॥चउत्थं अज्झयणं समत्तं॥ कठिन शब्दार्थ - वंता - त्याग करके, अणुवीइ - प्रासंगिक विषय और व्यक्ति के अनुरूप विचार (चिंतन) करके, गिट्ठाभासी - निष्ठाभाषी - पहले उस विषय का पूरा
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