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भाषाजात नामक चौथा अध्ययन
प्रथम उद्देशक तीसरे अध्ययन में ईर्या समिति का वर्णन किया गया है अब प्रस्तुत चौथे अध्ययन में भाषा समिति का कथन किया जाता है। चौथे अध्ययन के दो उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में सूत्रकार फरमाते हैं -
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा इमाइं वयायाराई (वइ-आयाराइं) सोच्चा णिसम्म इमाइं अणायाराइं अणायरियपुव्वाइं जाणिज्जा-जे कोहा वा वायं विउंजंति, जे माणा वा वायं विउंजंति, जे मायाए वा वायं विउंजंति, जे लोहा वा वायं विउंजंति, जाणओ वा फरुसं वयंति अजाणओ वा फरुसं वयंति, सव्वं चेयं सावजं वज्जिज्जा विवेगमायाए॥ . - कठिन शब्दार्थ - वइ - वाणी, आयाराई - आचार को, अणायाराई - अनाचारों को, अणायरियपुव्वाइं - पूर्व साधुओं ने जिसका आचरण नहीं किया (अनाचीर्ण) वायं - वचन को, विउंजंति- बोलते हैं, प्रयोग करते हैं, फरुसं - कठोर, विवेगं - विवेक से, आयाए - युक्त होकर। .. भावार्थ - साधु या साध्वी इन वचन संबंधी आचार को सुनकर विचार कर के पूर्व के साधुओं द्वारा अनाचरित भाषा संबंधी अनाचारों को जाने। जो क्रोध पूर्वक वाणी का प्रयोग करते हैं, जो मान पूर्वक वाणी का प्रयोग करते हैं, जो माया (छल कपट) सहित भाषा बोलते हैं और जो लोभ से युक्त वचन बोलते हैं, जो जानबूझ कर अथवा अनजान में कठोर वचन बोलते हैं इत्यादि सभी सावध वचनों का साधु विवेक पूर्वक त्याग करे।
विवेचन - साधारणतया मुंह द्वारा बोले जाने वाले शब्दों के समूह को भाषा कहते हैं। भाषा चार प्रकार की कही गयी है - १. सत्य भाषा २. असत्य भाषा ३. मिश्र भाषा और ४. व्यवहार भाषा। साधु साध्वी पहली और चौथी अर्थात् सत्य और व्यवहार भाषा का प्रयोग कर सकते हैं उन्हें दूसरी और तीसरी यानी असत्य और मिश्र भाषा का प्रयोग करना नहीं कल्पता है। क्रोधादि चार कषायों के वश होकर बोली हुई भाषा असत्य होती है अतः जब कषायों का उदय हो तब साधु को मौन रहना चाहिये।
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