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अध्ययन १ उद्देशक १ .000000000000000000000000000000000000000................. में से किसी एक कारण से आहार की आवश्यकता होने पर साधु कैसा आहार स्वीकार करे? यह प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है। गृहस्थ के घर जाकर साधु प्रासुक एवं एषणीय आहार ही ग्रहण करे।
प्रश्न - प्रासुक किसे किसे कहते हैं ?
उत्तर - प्रासुक शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है -- 'प्रगतः-प्रणष्टाः असवः प्राणाः यस्मात् स प्रासुकः।'
अर्थ - जिसमें से प्राण निकल गये हैं उसे प्रासुक कहते हैं अर्थात् अचित्त। प्रश्न - एषणीय किसे कहते हैं ?
उत्तर - 'इषु इच्छायाम्' धातु से एषणीय शब्द बना है। जिसका अर्थ है साधु जीवन की मर्यादा के अनुसार ग्रहण की जाने वाली वस्तु अर्थात् कल्पनीय वस्तु को एषणीय कहते हैं। अर्थात् आधाकर्म आदि दोषों से रहित आहार आदि एषणीय कहलाते हैं।
प्रश्न - आधाकर्म किसे कहते हैं ? . उत्तर - "साधु प्रणिधानेन यत् सचेतनं अचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकं, व्यूयते वा वस्त्रादिकं तत् आधाकर्म।" ____ अर्थ - साधु के लिये सचित्त वस्तु को अचित्त की जाय तथा अचित्त वस्तु को पकाया जाय तथा मकान आदि बनाया जाय एवं वस्त्रादिक बुने (बनाये) जाय, उसको आधाकर्म कहते हैं।
प्रश्न - अशन, पान, खादिम, स्वादिम किसे कहते हैं ?
उत्तर - 'अश्यते इति अशनम्' - जो खाया जाय। अर्थात् रोटी, दाल, भात आदि आहार अशन कहलाता है। __'पीयते इति पानम्' - जो. पीया जाय। अर्थात् पेय पदार्थ पानी, दूध आदि आहार पान कहलाता है। परन्तु 'पान' शब्द से प्रमुख रूप से पानी को ही ग्रहण करना चाहिये।
'खादयते इति खादिमम्' (खादयम्) - जो खाया जाय अर्थात् सूखा मेवा, फल आदि आहार खादिम कहलाता है। __'स्वादयते इति स्वादिमम्' (स्वादयम्) - जिससे मुख स्वादिष्ट बने अथवा मुख को स्वादिष्ट बनाने वाला आहार अर्थात् पान, सुपारी, इलायची, लोंग आदि आहार स्वादिम कहलाता है।
__(ठाणाङ्ग ४ उद्देशक ४ सूत्र ३४०)
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