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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध +00000000000000000000000000000000000000000000000000000000
अर्थ - उपरोक्त नौ सूत्रों में नौ प्रकार की शय्याओं का वर्णन किया गया है, इन नौ में से तीसरी अभिक्रान्ता और नवमी अल्पसावध-असावधक्रिया ये दो जैन साधु साध्वी के उतरने के योग्य हैं, शेष सात शय्याएँ उतरने के योग्य नहीं हैं।
॥दूसरे अध्ययन का दूसरा उद्देशक समाप्त॥
दूसरे अध्ययन का तृतीय उद्देशक से य णो सुलभे फासुए उंछे अहेसणिजे णो य खलु सुद्धे इमेहिं पाहुडेहिं तं जहा-छायणओ लेवणओ संथारदुवारपिहणओ पिंडवाएसणाओ, से य भिक्खू चरिया रए, ठाण-रए, णिसीहिया रए, सिजा संथारपिंडवाएसणा रए संति भिक्खुणो एवमक्खाइणो उज्जुया णियागपडिवण्णा अमायं कुव्वमाणा वियाहिया। संतेगइया पाहुडिया उक्खित्तपुव्वा भवइ, एवं णिक्खित्तपुव्वा भवइ, परिभाइयपुव्वा भवइ, परिभुत्तपुव्वा भवइ, परिट्ठवियपुव्वा भवइ, एवं वियागरेमाणे समियाए वियागरेइ? हंता भवइ॥८७॥
कठिन शब्दार्थ - सुलभे - सुलभ, उंछे - उंछ-छादन आदि दोषों से रहित, पाहुडेहिपाप कर्मों के उपादान से, पिंडवाएसणाओ - पिंडपानैषणा की दृष्टि से, चरिया रए - विहार की चर्या में रत, ठाण रए - कायोत्सर्गादि में रत, णिसीहिया रए - स्वाध्याय में रत, सिज्जासंथारपिंडवाएसणा रए - शय्या संस्तारक तथा आहार आदि की गवेषणा में रत, उज्जुया - सरल, णियागपडिवण्णा - नियागप्रतिपन्न-मोक्ष मार्ग के पथिक, अमाय - माया नहीं, कुव्वमाणा - करने वाले, उक्खित्तपुव्वा - उत्क्षिप्तपूर्वा 'इस स्थान (उपाश्रय) में रहो' यह कह कर पहले बतलाया हुआ, णिक्खित्तपुव्वा- रखा हुआ, परिभाइयपुव्वा - पहले ही बांटा हुआ है, परिभुत्तपुव्वा - पहले काम में ले चुके हैं, परिद्ववियपुवां - पहले त्यागा हुआ, समियाए - सम्यक्, वियागरेइ - कथन करता है।
भावार्थ - यदि कोई गृहस्थ साधु से कहे कि यहाँ आहार-पानी सुलभ है अतः आप : यहाँ रहने की कृपा करो, तब इस प्रकार उत्तर दे कि आहार-पानी की सुलभता होते हुए भी निर्दोष उपाश्रय का मिलना मुश्किल है। क्योंकि साधु के लिए उस उपाश्रय में कहीं छत डाली हो, लीपा पोती की हो या भूमि को समतल की हो, बैठक में फेर फार किया हो,
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