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अध्ययन २ उद्देशक १
११३ .00000000000000000000000000•••••••••••••................. भिक्खणं पुव्वोवइट्टा एस पइण्णा एस हेऊ एस कारणे एस उवएसे जं तहप्पगारे उवस्सए णो ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेइज्जा॥७०॥ .
कठिन शब्दार्थ - कुंडले - कुण्डल, गुणे - मेखला, मणि - चंद्रकान्तादि मणि, मुत्तिए - मुक्ता, मोती, हिरण्णे - चांदी, सुवण्णे - सोना, कडगाणि - कडा, तुडियाणिबाजूबंद-भुजाओं के आभूषण, तिसरगाणि - तीन लडी का हार, पालंबाणि - लम्बी माला, हारे - अठारह लडी का हार, अद्धाहारे - अद्धहार (नौ लडी का), एगावली - एकावली-एक लड़ी, मुत्तावली - मोतियों की लड़ी, कणकावली - कनकावली-स्वर्णहार, रयणावली - रत्नों का हार-रत्नावली, तरुणियं - युवा स्त्री को, कुमारि - कुमारी कन्या को, अलंकियं विभूसियं - आभूषणों से सुसज्जित, पेहाए - देखकर, एरिसिया- इसके समान।
भावार्थ - गृहस्थों के साथ निवास करना साधु साध्वी के लिए कर्म बंध का कारण है, क्योंकि गृहस्थ के कुंडल, मेखला (करधनी) मणि, मोती, चांदी, सोना, कडा, बाजूबंद, तीन लड़ी का हार, लम्बी माला, अठारह लडी का हार, अर्द्ध हार, एकावली, मुक्तावली, कनकावली, रत्नावली हार आदि आभूषणों तथा वस्त्रालंकारादि से अलंकृत और विभूषित युवा स्त्री अथवा कुमारी कन्या को देखकर मुनि के मन में संकल्प -विकल्प उत्पन्न हो सकते हैं कि ये सारी सामग्री मेरे घर पर भी थी अथवा नहीं थी-मेरी स्त्री भी इसके ही समान थी या इस तरह की नहीं थी। वह इस प्रकार कह सकता है या मन में राग-द्वेष के विचार उत्पन्न होना संभव है अतः साधुओं का यह पूर्वोपदिष्ट आचार है वह इस प्रकार के स्थान पर नहीं रहे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में साधु को गृहस्थ के साथ ठहरने का निषेध किया गया है क्योंकि ऐसे स्थानों पर रहने से गृहस्थ के वैभव संपन्न जीवन को देख कर उसका मन भी भोगों के चिंतन में लग सकता है जो कि कर्म बंध का कारण है।
आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइहिं सद्धिं संवसमाणस्स - इह खलु गाहावइणीओ वा, गाहावइधूयाओ वा, गाहावइसुप्हाओ वा, गाहावइधाईओ वा, गाहावइदासीओ वा, गाहावइकम्मकरीओ वा, तासिं च णं एवं वृत्तपुव्वं भवइ-जे इमे भवंति समणा भगवंतो जाव उवरया मेहुणाओ धम्माओ णो खलु
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