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________________ अध्ययन २ उद्देशक १ १११ ......................................................... कषाय द्रव्य से मिश्रित उबले हुए द्रव्य (क्वाथ आदि) से लोध, कंपिल्लकादि वर्ण, चूर्ण अथवा पद्म से घिसकर मालिस कर उबटन कर ठंडे अथवा गर्म जल से धोवे, प्रक्षालन करे, सिर से पैर तक नहलाए सिंचन करे, लकड़ी से लकड़ी रगड़ कर आग उत्पन्न करे, प्रज्वलित करे और उससे साधु के शरीर को गर्म करे, तपाये। अतः इन सब दोषों से बचने के लिए साधु का यह पूर्वोपदिष्ट आचार है कि वह गृहस्थों के संसर्ग वाले उपाश्रय में (घरों में) निवास नहीं करे, शय्या तथा स्वाध्याय आदि क्रियाएँ भी न करे। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि साधु-साध्वी को ऐसे मकान में नहीं ठहरना चाहिये जिसमें गृहस्थ रहते हों अथवा जहाँ परिवार के सदस्यों एवं पोषण के लिए सब तरह के सुख साधन एवं भोगोपभोग की सामग्री रखी हो। ऐसे स्थान पर रहने से कई प्रकार के दोष लगने की संभावना रहती है। उत्तराध्ययन सूत्र के १६ वें अध्ययन में भी कहा है - 'णो इत्थी पसुपंडगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्ता से णिग्गंथे।' साधु को स्त्री, पशु और नपुंसक युक्त मकान में और साध्वी को पुरुष, पशु और नपुंसक सहित मकान में नहीं रहना चाहिये। जो इनसे रहित. स्थान में रहता है वही निर्ग्रन्थ कहा गया है। ___ आयाणमेयं भिक्खुस्स सागारिए उवस्सए संवसमाणस्स। इह खलु गाहावई वा जाव. कम्मकरी वा अण्णमण्णं अक्कोसंति वा वहंति वा संभंति वा उद्दविंति वा, अह भिक्खूणं उच्चावयं मणं णियंच्छिज्जा - एए खलु अण्णमण्णं अक्कोसंतु वा मा वा अक्कोसंतु जाव मा वा उद्दविंतु। अह भिक्खु णं पुव्वोवइट्ठा एस पइण्णा, एस हेऊ, एस कारणे, एस उवएसे जं तहप्पगारे सागारिए उव्वस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वाणिसीहियं वा चेइज्जा॥६८॥ कठिन शब्दार्थ - अण्णमण्णं - आपस में (परस्पर), अक्कोसंति - आक्रोश करते हैं, झगड़ा करते हैं, संभंति - रोकते हैं, उहविति - उपद्रव करते हैं, णियंच्छिज्जा - परिणाम आवे, मणं - मन में, उच्चावयं - ऊंचे-नीचे भाव, अक्कोसंतु - आक्रोश करें। . भावार्थ - गृहस्थों के संसर्ग वाले मकान में ठहरना साधु-साध्वी के लिए कर्म बंध का कारण है क्योंकि वहाँ रहते गृहस्थ यावत् दास-दासियाँ परस्पर लड़ते-झगड़ते हों, बुरे वचन बोलते हों, मारते हों रोकते हों या उपद्रव करते हों तो ऐसा देखकर साधु के मन में ऊंचे-नीचे विचार आ सकते हैं जैसे - ये परस्पर लड़ें-झगड़ें अथवा नहीं लड़ें उपद्रव आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004185
Book TitleAcharang Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages382
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size8 MB
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