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अध्ययन २ उद्देशक १
१०९ .0000000000000000000000000000000000000000000000.........
कठिन शब्दार्थ - हत्थाणि - हाथ, पायाणि - पांव, अच्छीणि - आंख, दंताणि - दांत, ऊसढं- मल-मूत्र आदि का त्याग, वंतं - वमन, पित्तं - पित्त, पूयं - पीप, सोणियंशोणित-रुधिर, सरीरावयवं- शरीर संबंधी अशुचि, अभिहणिज्ज - विराधना हो, ववरोविज्जप्राण रहित हो जाय, अंतलिक्खजाए- आकाशवर्ती-ऊंचे स्थान में स्थित।।
भावार्थ - कदाचित् कारणवश ऐसे स्थानों पर रहना पडे तो वहां शीत या उष्ण (प्रासुक) जल से हाथ, पांव, आंख, दांत, मुंह आदि एक बार या अधिक बार नहीं धोए। वहां उच्चार-प्रस्रवण (मल-मूत्र) कफ, नाक का मैल (श्लेष्म) वमन, पित्त, मवाद, रक्त अथवा शरीर संबंधी किसी प्रकार की अशुचि का त्याग न करे क्योंकि केवली भगवान् ने इसे कर्म-बंध का कारण कहा है। इस प्रकार अशुचि का त्याग करते हुए कदाचित् साधु फिसल जाय, गिर जाय तो उसके हाथ-पैर मस्तक आदि शरीर के अवयव भंग हो सकते हैं, चोट पहुंच सकती है और उसके गिरने से जीव जंतुओं की विराधना हो सकती है अथवा वे प्राण रहित हो सकते हैं। अतः साधु और साध्वियों का यह पूर्वोपदिष्ट आचार है कि वे ऐसे आकाशवर्ती (ऊंचे स्थानों पर स्थित) उपाश्रयों में उपरोक्त क्रिया नहीं करे। ____विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में विषम स्थान पर रहने आदि का निषेध किया है इसका
कारण यह है कि ऐसे ऊंचे स्थान से गिरने से शरीर पर चोट लगने की व अन्य प्राणियों की हिंसा होने की संभावना रहती है। अतः ऐसे स्थानों पर साधु को नहीं ठहरना चाहिये।
आगमों में विभूषा की दृष्टि से हाथ पैर धोने एवं दांत आदि साफ करने का स्पष्ट निषेध किया गया है। निशीथ सूत्र उद्देशक १५ सूत्र १४१ में स्पष्ट कहा है कि जो साधु विभूषा के लिए दांतों आदि का प्रक्षालन करते हैं उन्हें प्रायश्चित्त आता है।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा सइत्थियं सखई सपसुभत्तपाणं तहप्पगारे सागारिए उवस्सए णो ठाणं वा सेजं वा णिसीहियं वा चेइज्जा, आयाणमेयं भिक्खुस्स गाहावइकुलेण सद्धिं संवसमाणस्स अलसए वा विसूइया वा छड्डी वा णं उब्बाहिजा अण्णयरे वा से दुक्खे रोगायंके समुप्पजिली असंजए कलुणपडियाए तं भिक्खुस्स गायं तिल्लेण वा घएण वा णवणीएण वसाए वा अब्भंगिज वा मक्खिज वा सिणाणेण वा कक्केण वा लुद्धेण वो वण्णेण वा चुण्णेण वा पउमेण वा आघंसिज वा पघंसिज वा उव्वलिज वा
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