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आचारांग सूत्र द्वितीय श्रुतस्कंध
शब्द का प्रयोग हुआ है। अतः इसमें जैन श्रमण भी सम्मिलित है अतः ऐसा उपाश्रय चाहे पुरुषान्तर कृत यावत् आसेवित भी हो तो भी जैन साधु-साध्वी को उसमें नहीं ठहरना चाहिए क्योंकि वह आधाकर्म दोष युक्त है।
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यहाँ मूल पाठ में ' अस्सिंपडियाए' शब्द दिया है जिसकी संस्कृत छाया 'एतत्प्रतिज्ञया ' की है। जिसका अर्थ है 'साधु के निमित्त' । परन्तु इसी आचाराङ्ग सूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम उद्देशक में ऐसा पाठ आया है - 'अस्संपडियाए' जिसकी संस्कृत छाया है - 'अस्वप्रतिज्ञया' । स्व शब्द के चार अर्थ होते हैं १. आत्मा २. आत्मीय ३. ज्ञाति-जाति ४. धन। यहाँ पर स्वं शब्द का अर्थ धन लिया गया है 'अ' का अर्थ है नहीं । अर्थात् जिसके पास धन नहीं है ऐसा निर्ग्रन्थ साधु । यहाँ अस्संपडियाए शब्द आगमानुकूल और उचित प्रतित होता है ।
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सेभिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण उवस्सयं जाणिज्जा बहवे समणमाहण- अतिहि किवण - वणीमए समुद्दिस्स पाणाइं भूयाइं जीवाई सत्ताई जाव चेएइ तहप्पगारे उवस्सए अपुरिसंतरकडे जाव अणासेविए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइज्जा । अह पुण एवं जाणिज्जा पुरिसंतस्कडे जाव आसेविए पडिलेहित्ता पमज्जित्ता तओ संजयामेव ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहियं वा चेइज्जा ॥
भावार्थ - जो उपाश्रय बहुत से श्रमण, ब्राह्मण, भिखारी आदि को उद्देश्य करके षट्काय के जीवों का समारंभ करके बनाया गया है, पुरुषान्तर कृत नहीं हुआ है और अभी तक उसका सेवन नहीं किया गया हो अर्थात् मकान मालिक अथवा जिनके लिये बनाया गया है वे ब्राह्मण अतिथि आदि नहीं ठहर गये हो तो जैन साधु साध्वी उसमें नहीं ठहरे। यदि ऐसा जाने कि वह उपाश्रय पुरुषान्तर कृत है, उसके मालिक द्वारा अधिकृत है, परिभुक्त तथा आसेवित-दूसरों ने काम में ले लिया गया है तो साधु या साध्वी भलीभांति देखकर, पूंजकर यतना के साथ वहां कायोत्सर्ग, शय्या और स्वाध्याय आदि करे । अर्थात् ऐसे उपाश्रय में साधु साध्वी ठहर सकते हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र से स्पष्ट है कि साधु साध्वी के निमित्त छह काय जीवों की हिंसा करके जो मकान बनाया गया है तथा जो उद्गम आदि दोषों से युक्त है तो साधु साध्वी को उस मकान में नहीं ठहरना चाहिये ।
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