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अध्ययन १ उद्देशक ११ ......................................................... असंसटे हत्थे संसटे मत्ते संसट्टे वा हत्थे असंसटे मत्ते से य पडिग्गहधारी सिया पाणिपडिग्गहिए वा, से पुव्वामेव आलोइज्जा-"आउसो त्ति वा भइणि त्ति वा। एएणं तुमं असंसद्रुण हत्थेण संसटेण मत्तेण संसटेण वा हत्थेण असंसटेण मत्तेण अस्सिं पडिग्गहगंसि वा पाणिंसि वा णिहट्ट उचित्तु दलयाहि" तहप्पगारं भोयणजायं सयं वा णं जाइज्जा परो वा से दिज्जा फासुयं जाव पडिगाहिज्जा। तइया पिंडेसणा॥
कठिन शब्दार्थ - विरूवरूवेसु - विभिन्न प्रकार के, भायणजाएसु - पात्रों में, उवणिक्खित्त - रखा हुआ (पडा हुआ) हो, थालंसि - थाल में, पिढरंसि - हांडी, तपेली में , सरगंसि - सूप छाज आदि में, परगंसि - बांस की टोकरी में, वरगंसि - बहु मूल्य पात्रों में, पडिग्गहधारी - पात्र धारी (स्थविर कल्पी), पाणिपडिग्गहिए - कर पात्री (जिनकल्पी), उचित्तु दलयाहि - ऊपर से हमें दे दो।
. भावार्थ - तीसरी पिंडैषणा यह है कि इस संसार में पूर्वादि चारों दिशा में कितने ही गृहस्थ गृहपत्नी यावत् दास दासी श्रद्धालु जीव होते हैं। उनके यहाँ थाल, हांडी, सूप, छाब (बांस की टोकरी) अथवा बहुमूल्य नाना प्रकार के पात्रों में अशनादिक आहार रखा हुआ होता है। साधु ऐसा जाने कि गृहस्थ के हाथ अलिप्त है और पात्र लिप्त है अथवा लिप्त हाथ है और अलिप्त पात्र है तो ऐसे समय पात्रधारी अथवा कर-पात्री साधु पूर्व में ही देख कर उसे ऐसा कहे कि - 'हे आयुष्मन् अथवा हे बहिन! तुम अलिप्त हाथ और लिप्त पात्र से हमारे पात्र या हाथ में आहार ऊपर से दे दो। इस प्रकार के भोजन की स्वयं याचना करे या अन्य कोई गृहस्थ बिना मांगे लाकर देवे तो प्रासुक और एषणीय जान कर ग्रहण करे। यह तीसरी पिंडैषणा है।
अहावरा चउत्था पिंडेसणा-से भिक्खू वा भिक्खुणी वा से जं पुण जाणिज्जापिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा, अस्सिं खलु पडिग्गहियंसि अप्पे पच्छाकम्मे अप्पे पंज्जवजाए तहप्पगारं पिहुयं वा जाव चाउलपलंबं वा सयं वा णं जाइज्जा जाव पडिगाहिजा। चउत्था पिंडेसणा॥
कठिन शब्दार्थ - अप्पे - अल्प-अभाव (रहित), पच्छाकम्मे - पश्चात् कर्म, पज्जवजाए - पर्यव जात।
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