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________________ ६४. आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 8888888888888888888888888888888888888888 माणेहिं, चक्खुपरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं घाणपरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं, रसणापरिणाणेहिं परिहायमाणेहिं फासपरिण्णाणेहिं परिहायमाणेहिं, अभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए तओ से एगया मूढभावं जणयइ। ___ कठिन शब्दार्थ - अप्पं - अल्प (बहुत थोड़ी), आउयं - आयु, इह - इस संसार में, एगेसिं - कितनेक, माणवाणं - मनुष्यों की, सोयपरिण्णाणेहिं - श्रोत्र परिज्ञान (कान की. शब्द सुनने की शक्ति) के, परिहायमाणेहिं - हीन (क्षीण) होने पर, चक्नुपरिणाणेहिं - चक्षु परिज्ञान (नेत्र की देखने की शक्ति) के, घाण परिणाणेहिं - घ्राण परिज्ञान के, रसणापरिणाणेहिं - रसना परिज्ञान-जिह्वा की रस ग्रहण करने की शक्ति के, फासपरिणाणेहिंस्पर्श परिज्ञान के, अभिक्कंतं - बीती हुई, वयं - आयु, अवस्था को, संपेहाए - देख कर, मूढभावं - मूढभाव-मूढता को, जणयइ - प्राप्त होता है। .. - भावार्थ - इस संसार में कितनेक मनुष्यों का अल्प आयुष्य होता है। जैसे - श्रोत्रं परिज्ञान (कान की शब्द सुनने की शक्ति) के हीन हो जाने, चक्षु परिज्ञान के हीन हो जाने, घ्राण परिज्ञान के हीन हो जाने, रसपरिज्ञान के हीन हो जाने और स्पर्श परिज्ञान के हीन हो जाने पर तथा बीती हुई आयु (यौवन अवस्था आदि) को देख कर, बुढ़ापा आने पर वह मनुष्य मूढभाव को प्राप्त हो जाता है। ___ विवेचन - श्रोत्र, नेत्र आदि इन्द्रियों के द्वारा ही आत्मा प्रत्येक वस्तु का ज्ञान करता है और उन्हीं के द्वारा रूप रसादि विषयों को ग्रहण करता है परन्तु जब वृद्धावस्था आती है तब इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है तब. वह मनुष्य विवेकशून्य हो जाता है क्योंकि हित की प्राप्ति और अहित का परित्याग इन्द्रियों की शक्ति रहते हुए ही हो सकता है किंतु वृद्धावस्था में सब इन्द्रियों की शक्ति क्षीण हो जाती है. तब वृद्ध मनुष्य चिंता और अविवेक से मूढ बन जाता है। अतः विवेकी मनुष्य को चाहिए कि इन्द्रियों की शक्ति रहते हुए धर्माचरण में एक क्षण मात्र भी प्रमाद न करे ताकि वृद्धावस्था आने पर उसे चिंतित एवं मूढ न होना पड़े। जीवन की अशरणता (६८) जेहिं वा सद्धिं संवसइ, तेविणं एगया णियगा पुट्विं परिवयंति। सो वा ते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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