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प्रथम अध्ययन - सातवा उद्देशक - एक काय की हिंसा करने वाला....
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कठिन शब्दार्थ - जाण - जानो, उवाईयमाणा - उपादीयमानान्-कर्मों से आबद्ध होकर-पाप के भागी बन कर, आयारे - आचार में, ण रमंति - रमण नहीं करते हैं, आरंभमाणा - आरम्भ करते हुए, विणयं - विनय-संयमी, छंदोवणीया - छन्दसा उपनीता:स्वेच्छानुसार आचरण करने वाले, अज्झोववण्णा- अध्युपपन्नाः-विषयों में आसक्त, आरम्भसत्ताआरम्भ में आसक्त होकर, संगं पकरंति - आत्मा के साथ आठ कर्मों का संग करते हैं। ___भावार्थ - वायुकाय आदि किसी एक काय का आरम्भ करने वाला प्राणी शेष कायों के आरम्भ से होने वाले पाप का भागी होता है अर्थात् एक काय की हिंसा करने वाला छह काया के जीवों की हिंसा करता है, ऐसा जानो। जो आचार में रमण नहीं करते हैं वे स्वेच्छाचारी अपने को संयमी कहते हुए भी विषय वासना एवं आरम्भ में आसक्त होकर सावध कर्म का अनुष्ठान करते हैं और अपनी आत्मा के साथ आठ कर्मों का संग करते हैं।
विवेचन - इस अध्ययन के पिछले उद्देशकों में यह स्पष्ट किया गया है कि पृथ्वीकाय आदि जोवों की हिंसा कर्म बंध का कारण है। प्रस्तुत सूत्र में यह स्पष्ट बताया गया है कि एक काय की हिंसा करने वाला छह काय की हिंसा का भागी होता है। जैसे कोई व्यक्ति पृथ्वीकाय की हिंसा करता है तो पृथ्वीकाय के आश्रित रहे हुए अन्य अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रस जीवों की हिंसा होती है। एक काय की हिंसा करने वाला अन्य सभी कार्यों की हिंसा के प्रति भी निरपेक्ष (बेपरवाही वाला) होने से उसे छह काय की हिंसा करने वाला कहा जाता है। इस प्रकार छह काय के आरम्भ समारंभ से कर्मों का बन्य होता है और परिणाम स्वरूप जीव संसार में परिभ्रमण करता है। अतः मुमुक्षु को षट्कायिक जीवों के आरम्भ .. से निवृत्त होना चाहिये।
कितनेक अन्यतीर्थी अपने आपको साधु कहते हैं किन्तु वे पंचाचार (ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार) में रमण नहीं करते फलस्वरूप स्वच्छंदाचारी बन कर, विषयवासना में आसक्त होकर अनेक जीवों की हिंसा करते हैं और कर्म बंध कर संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। .
(६३) से वसुमं सव्वसमण्णागय-पण्णाणेणं अप्याणेणं अकरणिजं पावकम्मं णो अण्णेसि।
कठिन शब्दार्थ - वसुमं - वसुमान्-रत्नत्रयी रूप धन से सम्पन्न, सव्वसमण्णागय
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