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प्रथम अध्ययन - सातवाँ उद्देशक - त्रसकाय हिंसा निषेध
तक उसका त्याग नहीं कर सकता है। जो पुरुष त्रसकाय के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से जानता है वही त्रसकाय के आरम्भ का त्यागी हो सकता है। ।
त्रसकाय हिंसा निषेध
(५४) तं परिण्णाय मेहावी व सयं तसकायसत्थं समारंभेजा , णेवण्णेहिं तसकायसत्थं समारंभावेजा, णेवण्णे तसकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेजा, जस्सेए तसकायसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति। से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि।
॥ इइ छट्ठोद्देसो॥ : भावार्थ - बुद्धिमान् पुरुष त्रसकाय के आरम्भ-समारम्भ को कर्म बंध का कारण जान कर स्वयं त्रसकाय का समारम्भ न करे, न दूसरों से त्रस काय का समारम्भ करवाएं और त्रसकाय का समारम्भ करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करे।
जिसने त्रसकाय के समारम्भ को जान कर त्याग दिया है वही मुनि परिज्ञात कर्मा होता हैऐसा मैं कहता हूँ।
.विवेचन - प्रस्तुत सूत्र का सार यही है कि मुमुक्षु त्रसकायिक जीवों पर किये जाने वाले शस्त्र प्रयोग से होने वाले कर्म बन्ध को समझे और तीन करण तीन योग से त्रसकाय के आरम्भ का त्याग करे।
त्ति बेमि अर्थात् श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य श्री जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे. आयुष्मन् जम्बू! जिस प्रकार मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना था उसी प्रकार मैं तुम्हें कहता हूँ।
॥ इति प्रथम अध्ययन का छठा उद्देशक समाप्त।
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