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भावार्थ - धर्मोपदेश करते हुए अपनी आत्मा की आशातना नहीं करे, उपेक्षा नहीं करेआत्मदृष्टि को नहीं भूले अर्थात् स्वीकृत नियमों में दोष नहीं लगावे, न पर प्राण भूतादि की आशातना करे।
३. संयम में सावधान मुनि किस प्रकार विचरे - “एवं से उठ्ठिए ठियप्पा अणिहे अचले चले अबहिल्लेसे" (आचारांग १-६-५)।
भावार्थ - संयम में सावधानमुनि आत्मस्थित, रागद्वेष रहित, परिषहों के उपस्थित होने पर अचल, अप्रतिबद्ध विहारी और संयम मर्यादा के बाहर विचार नहीं करता हुआ विचरे।
४. “अहम्मे अत्तपण्णहा....पावसमणे त्ति वच्चई” (उत्तराध्ययनं सूत्र १७-१२). आत्म-प्रज्ञा को हानि करने वाला अर्थात् व्रतों में दोष लगाने वाला अधर्मी पाप श्रमणं है।
इस प्रकार एक नहीं अनेक नमूने आगमों में भरे पड़े हैं जिससे यह स्पष्ट होता है कि जैन दर्शन में साधक का एक मात्र लक्ष्य आत्म-शोधन करना ही बतलाया गया है। यही कारण है. कि जैन आगम साहित्य में आचारांग सूत्र को प्रथम स्थान दिया गया है। क्योंकि संघ व्यवस्था में सर्व प्रथम आचार (आचरण) की व्यवस्था आवश्यक ही नहीं अपितु प्रभु ने अपने केवलज्ञानमें अनिवार्य समझी। श्रमण के साधना जीवन में आचार का कितना महत्त्व है इसका मार्मिक चित्रण प्रस्तुत आचारांग सूत्र में किया गया है। आचारांग नियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु ने स्पष्ट कहा है-मुक्ति का अव्याबाध सुख प्राप्त करने का मूल, आचार है। अंगों का सार तत्त्व आचार में रहा हुआ है। यह मोक्ष का साक्षात् कारण होने से इसे सम्पूर्ण जिन वचनों की आधारशिला कहा गया है।
किसी जिज्ञासु ने आचार्य भगवन् से प्रश्न किया कि सभी अंग सूत्रों का सार आचार कहा गया है तो आखिर आचार का सार क्या है? आचार्य ने जिज्ञासु की जिज्ञासा का समाधान इस प्रकार किया
अंगाणं किं सारो? आयारो तस्स हवइ किं सारो। अणुओगत्थो सारो तस्स वि य परूवणा सारो॥ सारो परूवणाए चरणं तस्स वि य होय निव्वाणं। निव्वाणस्स उ सारो अव्वाबाहं जिणाविंति॥
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