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________________ प्रथम अध्ययन - प्रथम. उद्देशक - हिंसा के हेतु ११ 888888888888888888888888888888888888888888888 - जस्सेए लोगंसि कम्मसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मेत्ति बेमि॥६॥ ॥ पढमं अज्झयणं पढमो उद्देसो समत्तो॥ .. कठिन शब्दार्थ - जस्स - जिसके, एए - ये, परिणाया - परिज्ञात, मुणी - मुनि, परिण्णायकम्मे - परिज्ञातकर्मा, त्तिबेमि - ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ - इस लोक में ये जो कर्म समारम्भ - क्रिया विशेष हैं इन्हें जो जान लेता है और त्याग देता है वही मुनि परिज्ञात कर्मा होता है - ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - ज्ञानावरणीय आठ कर्मों के बन्ध की कारण क्रिया विशेष है उन्हीं को कर्मसमारम्भ कहते हैं। जो कर्मबन्ध के कारणभूत इन क्रियाओं को सम्यक्तया जानने वाला तथा उनका त्याग करने वाला मुनि है वह परिज्ञातकर्मा कहलाता है। परिज्ञातकर्मा का तात्पर्य हैवह मुनि जो ज्ञ परिज्ञा से कर्म समारंभ को वास्तविक रूप से जानता समझता है और प्रत्याख्यान परिज्ञा के द्वारा उसका परित्याग करता है। मुनि शब्द की व्याख्या करते हुए टीकाकार ने कहा है - 'मनुते मन्यते वा जगतस्त्रिकालावस्थाभितीति मुनिः' ... - जो मननशील है या लोक की, जगत् की त्रिकालवर्ती अवस्था को जानने वाला है, वह मुनि है। ... __इससे यह स्पष्ट हो गया कि जिस साधक को क्रिया का सम्यक् बोध है और जो विवेक . पूर्वक संयम साधना में प्रवृत्त है वह मुनि है और वही मुनि परिज्ञात-कर्मा है। क्रिया संबंधी इस प्रथम उद्देशक का सारांश यही है कि साधक कर्मबंधन की हेतुभूत क्रिया के स्वरूप को सम्यक् रूप से जान कर उससे निवृत्त होने का प्रयत्न करे। . तिबेमि - इति ब्रवीमि का अर्थ है इस प्रकार मैं तुमसे कहता हूँ. अर्थात् सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् शिष्य! जिस प्रकार मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से सुना था उसी प्रकार मैं तुम्हें कहता हूँ। || इति प्रथम अध्ययन का प्रथम उदेशक समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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