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आठवां अध्ययन - आठवां उद्देशक - इंगित मरण का स्वरूप २६६ R RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR888@@@@@@@@
भावार्थ - 'इस अद्वितीय - अनुपम मरण की साधना में लीन मुनि अपनी इन्द्रियों को विषय विकारों से हटा लें। यदि ग्लानावस्था के कारण किसी पाटे आदि की आवश्यकता हो तो वह घुन आदि जीवों से युक्त पाट को छोड़ कर जीव रहित पाट या काष्ट स्तंभ की गवेषणा करे।
(४५४) . जओ वजं समुप्पजे, ण तत्थ अवलंबए। तओ उक्कसे अप्पाणं, फासे तत्थ अहियासए॥
कठिन शब्दार्थ - वजं - वज्रवत् भारी कर्म, समुप्पजे - उत्पन्न हो, ण अवलंबए - अवलम्बन न ले, उक्कसे - हटाए। . ___भावार्थ - जिस व्यापार से या जिसका आश्रय लेने से वज्र के समान भारी कर्म अथवा पाप की उत्पत्ति होती है, साधु उस कार्य को न करे तथा उस घुन आदि से युक्त काष्ठादि का अवलंबन न ले किन्तु उन कार्यों से अपनी आत्मा को हटा ले। शुभ ध्यान और शुभ परिणामों पर चढ़ता हुआ मुनि परीषह उपसर्गों को समभाव से सहन करे।
(४५५) अयं चाययतरे सिया, जो एवं अणुपालए। सव्वगायणिरोहेवि, ठाणाओ ण विउन्भमे॥
कठिन शब्दार्थ - - - और, भक्त प्रत्याख्यान और इंगित मरण से, आययतरे - विशिष्टतर, सव्वगायणिरोहेवि - सारे शरीर का निरोध होने पर भी। ___ भावार्थ - यह पादपोपगमन अनशन, भक्त प्रत्याख्यान और इंगित मरण से विशिष्टतर है। जो साधु इसका विधि के अनुसार पालन करता है। वह शरीर के समस्त अंगों का निरोध हो जाने पर भी अपने स्थान से किंचित् मात्र भी न हटे।
विवेचन - पादपोपगमन अनशन में साधक पादप-वृक्ष की तरह निश्चल-निःस्पंद रहता है। वह जिस स्थान से बैठता या लेटता है उसी स्थान में वह जीवन पर्यन्त स्थिर रहता है इसीलिये भक्त प्रत्याख्यान और इंगितमरण दोनों अनशनों से इसे श्रेष्ठ माना गया है।
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