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भावार्थ - ग्रंथ - बाह्य और आभ्यंतर दोनों प्रकार की ग्रंथियों से रहित आत्म चिंतन में संलग्न वह मुनि आयुष्य (समाधिमरण) के काल का पारगामी हो जाता है। यह इंगितमरण, भक्त परिज्ञा से विशिष्टतर है अतः यह संयम शील गीतार्थ मुनियों (विशिष्ट धैर्य, विशिष्ट संहनन और कम से कम नौ पूर्वों के ज्ञाता पुरुषों) द्वारा ही ग्रहण किया जाता है।
विवेचन अब तक भक्त परिज्ञा मरण का कथन किया गया है। इस गाथा के उत्तरार्द्ध. से इंगित मरण का कथन किया जाता है। यह इंगितमरण पूर्व गृहीत भक्त प्रत्याख्यान से विशिष्टतर है। इसे विशिष्ट ज्ञानी (कम से कम नौ पूर्व का ज्ञाता गीतार्थ) संयमी मुनि ही प्राप्त कर सकता है।
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध)
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इंगित मरण का स्वरूप (४४८)
अयं से अवरे धम्मे, णायपुत्त्रेण साहिए ।
आयवज्जं पडीयारं, विज्जहिज्जा तिहा तिहा ॥
कठिन शब्दार्थ - अवरे - अपर - भक्तप्रत्याख्यान से भिन्न इंगित मरण रूप, णायपुत्त्रेण
आत्मवर्ज अपने सिवाय
त्याग करे, तिहा तिहा
ज्ञातपुत्र श्री महावीर स्वामी ने, साहिए - बतलाया है, आयवज्जं दूसरों की, पडीयारं प्रतिचार - परिचर्या - सेवा का, विज्जहिज्जा तीन करण तीन योग से ।
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भावार्थ ज्ञातपुत्र श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने भक्त प्रत्याख्यान से भिन्न इंगित मरण रूप धर्म का प्रतिपादन किया है। इस अनशन में स्थित साधु अपने सिवाय किसी दूसरे की सेवा का तीन करण तीन योग से त्याग करे ।
विवेचन - दीक्षा ग्रहण करना, संलेखना करना, स्थंडिल भूमि का प्रतिलेखन करना आदि जो क्रम भक्त प्रत्याख्यान में बतलाया गया है वही क्रम इंगित मरण के विषय में है परन्तु इसमें विशेष धर्म यह कहा गया है कि इंगित मरण की शय्या पर स्थित साधु दूसरों से सेवा कराने का मन, वचन, काया रूप तीन योग और करना, कराना, अनुमोदना रूप तीन करण से त्याग करे । वह स्वयमेव उस शय्या पर उलटना या करवट बदलना आदि करे किन्तु दूसरे की सहायता न ले।
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