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________________ आठवां अध्ययन - आठवां उद्देशक - भक्त प्रत्याख्यान का स्वरूप २६३ 麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥麥部非事事部要 हुए भी यदि क्षुधा परीषह अधिक सतावे तो भी साधु आहार की इच्छा न करे अर्थात् वह यह नहीं सोचे कि 'मैं थोड़े दिन और आहार कर लूँ फिर संलेखना करूंगा।' ___ इस गाथा में ‘आहारस्सेव अंतियं' पद दिया है किन्तु इसके आगे कुछ भी क्रिया पद नहीं दिया है। इसलिए वाक्य की पूर्ति के लिए यदि 'न गच्छेत्' क्रिया का अध्याहार किया जाय तब तो इस वाक्य का वही अर्थ होगा जो ऊपर किया गया है किन्तु यदि 'न गच्छेत्' के स्थान पर सिर्फ 'गच्छेत्' क्रिया का अध्याहार करें तब इसका यह अर्थ होगा कि संलेखना करता हुआ साधु यदि आहार के बिना अत्यंत ग्लानि को प्राप्त हो और आहार में मूर्च्छित होकर उसका चित्त शुभ ध्यान से हट कर अशुभ ध्यान की ओर जाने लगे तो उसे अशुभ ध्यान को मिटाने के लिए आहार दिया जा सकता है। (४४१) जीवियं णाभिकंखेजा, मरणं णोवि पत्थए। दुहओवि ण सज्जेजा, जीविए मरणे तहा॥ मज्झत्थो णिज्जरापेही, समाहिमणुपालए। अंतो बहिं विउस्सिज्ज, अज्झत्थं सुद्धमेसए॥ कठिन शब्दार्थ - सजेजा - आसक्त होवे, पत्थए - इच्छा करे, मज्झत्थो - मध्यस्थ, णिजरापेही - निर्जरा की अपेक्षा रखता हुआ, विउस्सिज - त्याग कर, अज्झत्थंअंतःकरण की, सुद्धं - शुद्धि की, एसए - कामना करे। ... भावार्थ - संलेखना में स्थित साधु न तो जीने की आकांक्षा करे और न मरने की अभिलाषा करे। जीवन और मरण दोनों ही में आसक्त न होवे। __ मध्यस्थ यानी जीवन और मरण की आकांक्षा से रहित (सुख दुःख में सम) निर्जरा की भावना वाला साधु समाधि का पालन करे। वह राग, द्वेष, कषाय आदि आंतरिक तथा शरीर, उपकरण आदि बाह्य पदार्थों का त्याग कर अंतःकरण (मन) की शुद्धि की कामना करे, शुद्ध अध्यात्म की अन्वेषणा करे। . विवेचन - संलेखना में प्रवृत्त साधक अपनी प्रशंसा होती देख कर अधिक जीवन की इच्छा न करे और क्षुधा की पीड़ा से तथा रोगादि से घबरा कर शीघ्र मरने की इच्छा न करे किन्तु वह जीवन और मरण किसी में आसक्त न होता हुआ समभाव रखे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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