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भावार्थ यह इंगित मरण सत्य है, हितकारी है और इसकी अंगीकार करने वाला सत्यवादी है। वह राग द्वेष रहित, संसार सागर को तिरने वाला, राग द्वेषादि की कथा को छेदन करने वाला, जीवादि पदार्थों का ज्ञाता और संसार सागर को पार करने वाला है। वह साधक प्रतिक्षण विनाशशील इस शरीर का त्याग कर नाना प्रकार के परीषह उपसर्गों पर विजय प्राप्त करके, उन्हें समभाव से सहन करके इस आर्हत् आगम में विश्वास होने के कारण इस घोर - कठिन अनशन का आचरण करे। रोगादि आतंक के कारण इंगित मरण को स्वीकार करना भी उस साधु के लिए कालपर्याय काल मृत्यु है यावत् भवान्तर में साथ चलने वाला होता है
ऐसा मैं कहता हूँ ।
विवेचन
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध )
कभी भी श्री भी की
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प्रस्तुत सूत्र में इंगित मरण का माहात्म्य बताया गया है। पादपोपगमन की अपेक्षा से इंगित मरण में चलन की छूट रहती है। इसीलिए कहा जाता है कि इसमें चलन का क्षेत्र (प्रदेश) इंगित - नियत कर लियाजाता है। इस मरण का आराधक उतने ही प्रदेश में संचरण कर सकता है। इसे 'इत्वरिक अनशन' भी कहते हैं । यहाँ 'इत्वर' शब्द थोड़े काल के अर्थ में प्रयुक्त नहीं है और न ही इत्वर सागार प्रत्याख्यान के अर्थ में यहाँ अभीष्ट है अपितु थोड़े से निश्चित प्रदेश में यावज्जीवन संचरण करने के अर्थ में है ।
॥ इति आठवें अध्ययन का छठा उद्देशक समाप्त ॥ अहं अज्झयणं सत्तमो उद्देशो
आठवें अध्ययन का सातवां उद्देशक
छठे उद्देशक में इंगित मरण का कथन किया गया है। अब इस सातवें उद्देशक में पादपोपगमन मरण एवं प्रतिमाओं का वर्णन किया जाता है । इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं -
अचेल - कल्प (४३३)
जे भिक्खू अचेले परिवुसिए तस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ चाएमि अहं तणफासं अहियासित्तए, सीयफासं अहियासित्तए, तेउफासं अहियासित्तए,
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