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आठवां अध्ययन - पांचवां उद्देशक - द्विवस्त्रधारी साधु का आचार २७७ RRRRRRRRR88888888888RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRR88888
द्विवस्त्रधारी साधु का आचार
(४२४) ___ से भिक्खू दोहिं वत्थेहिं परिवुसिए पायतइएहिं, तस्स णं णो एवं भवइ तइयं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिजाई वत्थाई जाएजा, जाव एवं खलु तस्स भिक्खुस्स सामग्गियं। .
.. 'भावार्थ - जो साधु दो वस्त्र और तीसरा एक जाति का पात्र रखने की प्रतिज्ञा में स्थित है उसके मन में ऐसा विचार नहीं होता कि "मैं तीसरे वस्त्र की याचना करूंगा।" उस साधु को चाहिये कि वह एषणा (अपनी कल्पमर्यादानुसार) के अनुसार वस्त्रों की याचना करे। निश्चय ही उस वस्त्रधारी साधु की यही सामग्री है।
(४२५) अह पुण एवं जाणेजा, उवाइक्कंते खलु हेमंते, गिम्हे पडिवण्णे, अहा परिजुण्णाई वत्थाई परिट्ठवेज्जा वत्थाई परिट्टवेत्ता अदुवा एगसाडे, अदुवा अचेले, लाघवियं आगममाणे, तवे से अभिसमण्णागए भवइ, जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमेच्चा सव्वओ सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया।
भावार्थ - जब साधु यह जान ले कि हेमन्त ऋतु बीत गयी है और ग्रीष्म ऋतु आ गयी है तब वह जिन वस्त्रों को जीर्ण समझे उन्हें त्याग देवें। इस प्रकार जीर्ण वस्त्रों का परित्याग करके या तो वह एक शाटक में रहे-एक ही वस्त्र धारण करे अथवा रजोहरण और मुखवस्त्रिका के सिवाय एक वस्त्र का भी त्याग कर अचेलक-निर्वस्त्र हो जाए। इस प्रकार लाघवता का चिंतन करता हुआ वस्त्र त्याग (वस्त्र विमोक्ष) करे। ... इस प्रकार अल्प वस्त्र या वस्त्र त्याग से साधु को तप की प्राप्ति होती है यानी उस मुनि को सहज ही उपकरण ऊनोदरी और कायक्लेश तप का लाभ हो जाता है।
तीर्थकर भगवान् ने जिस प्रकार उपधि त्याग का प्रतिपादन किया है उसे उसी रूप में गहराई से जान कर सब प्रकार से सर्वात्मना सम्यक्त्व या समभाव को जाने और उसका आचरण करे।
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