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छठा अध्ययन - पांचवां उद्देशक - धर्मोपदेश क्यों, किसको और कैसे? २४७ BRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE
कठिन शब्दार्थ - दयं - दया को, आइक्खे - आख्यान-धर्म का उपदेश करे, विभएविभेद करके, किट्टे - कीर्तन करे।
भावार्थ - लोक की दया को जान कर यानी संसारी प्राणियों पर दया करके पूर्व, पश्चिम दक्षिण और उत्तर सभी दिशाओं में धर्म का कथन करे। वेदज्ञ - आगमज्ञ मुनिः धर्म का विभेदविभाग करके कीर्तन करे अर्थात् धर्माचरण के सुफल का प्रतिपादन करे। .
- (३८५) से उट्ठिएसु वा, अणुट्टिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेयए, संति, विरई, उवसमं, णिव्वाणं, सोयं अनक्यिं मद्दवियं लाघवियं अणइवत्तियं। .. कठिन शब्दार्थ - सुस्सूसमाणेसु - धर्म सुनने के इच्छुक, पवेयए - धर्म का उपदेश करे, संतिं- शांति, सोयं - शौच (निर्लोभता) अजवियं - आर्जव (सरलता), मद्दवियं - मार्दव (कोमलता), लापवियं - लाघव (अपरिग्रह) अणइवत्तियं - आगम का अतिक्रम न करके यथायोग्य।
भावार्थ - वह साधु धर्माचरण के लिए उत्थित या अनुत्थित धर्म सुनने की इच्छा करने वाले प्राणियों के लिए शांति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच, आर्जव, मार्दव, लाघव का आगम के अनुसार यथायोग्य प्रतिपादन करे - धर्म का उपदेश करे।
(३८६) सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसि भूयाणं सव्वेसि जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खेजा।
भावार्थ - वह साधु सभी प्राणियों, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्त्वों का हित चिन्तन करके धर्म का कथन करे।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में धर्मोपदेश क्यों, किसको और कैसे दिया जाय, इसका समाधान किया गया है।
. सांसारिक जीवों पर दया करके उनके कल्याणार्थ साधु उनकी योग्यतानुसार अहिंसा, विरति, क्षमा, आर्जव, मार्दव आदि का धर्मोपदेश करे। धर्म का श्रोता कैसा हो? इसके लिए टीकाकार ने स्पष्ट किया है कि - वह आगमवेत्ता स्व पर सिद्धान्त का ज्ञाता मुनि यह देखे कि
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