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________________ छठा अध्ययन - चौथा उद्देशक - अहंकारी की कुचेष्टाएं २४५ 888888888888888888888888888888888888888888888888 जाती है, जगत् में उसकी निंदा होती है कि यह श्रमण विभ्रान्त है (साधु धर्म से भटक गया है) यह श्रमण विभ्रान्त है। (३८१) पासहेगे समण्णागएहिं सह असमण्णागए, णममाणेहिं अणममाणे विरएहिं अविरए दविएहिं अदविए। कठिन शब्दार्थ - समण्णागएहिं - उद्यत विहारियों के, असमण्णागए - शिथिल विहारी हो जाते हैं, णममाणेहिं - नत-विनयशील के, अणममाणे - अनम्र-नम्रता रहित, दविएहिं - द्रव्य-मुक्ति गमन योग्य साधकों के। भावार्थ - यह भी देख! संयम से पतित कई मुनि उत्कृष्ट आचार वालों के साथ रहते हुए भी शिथिलाचारी, विनयवान् (नत-समर्पित) मुनियों के बीच रहते हुए अविनीत/असमर्पित), विरत साधुओं के बीच रहते हुए भी अविरत तथा चारित्र सम्पन्न मोक्ष गमन योग्य मुनियों के · बीच रहते हुए भी चारित्रहीन हो जाते हैं। (३८२) अभिसमेच्चा पंडिए मेहावी णिट्ठियढे वीरे आगमेणं सया परक्कमिजासि त्ति बेमि। . ॥ छटुं अज्झयणं चउत्थोडेसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्थ - णिट्ठियड्ढे - निष्ठितार्थ - विषय सुख से रहित, आगमेणं - आगमानुसार, परक्कमिजासि - पराक्रम करे। भावार्थ - इस प्रकार के शिष्यों को भलीभांति जानकर पण्डित, मेधावी, निष्ठितार्थ - विषय सुख से निस्पृह, वीर (कर्मों का नाश करने में समर्थ) मुनि सदा आगम के अनुसार संयम में पराक्रम करे। ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में तीन गौरवों का त्याग कर साधक को जिन चढ़ते परिणामों से ... — दीक्षा अंगीकार की वैसे ही चढ़ते परिणामों में संयम पालन करने की प्रेरणा की गयी है। ॥ इति छठे अध्ययन का चौथा उद्देशक समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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