________________
२४०
आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 參參參參參參參參參參本來無事部部事务部部參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參 विडज्झमाणा - जलते हुए, अज्झोववण्णा - आसक्त होकर, समाहिमाघायं - तीर्थंकर भगवान् द्वारा कही हुई समाधि का अजोसयंता - सेवन न करते, सत्थारमेव - शास्ता - उपदेशक को ही।
भावार्थ - कुछ पुरुष कुशीलों के आशातना आदि के दुष्परिणामों को सुन समझ कर भी "लोक में माननीय उत्कृष्ट संयमी जीवन जीएंगे" इस प्रकार की भावना से प्रव्रजित होकर मोह के उदय से मोक्ष मार्ग का अनुसरण नहीं करके ईर्ष्यादि में जलते हुए कामभोगों में गृद्ध या तीन गारवों में अत्यंत आसक्त होकर तीर्थंकर द्वारा प्ररूपित समाधि का सेवन नहीं करते हैं. और शास्ता - आचार्यादि उपदेशक को ही कठोर वचन कहते हैं।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में ऋद्धि गौरव के अंतर्गत ज्ञान ऋद्धि का गर्व कितना भयंकर होता है, यह बताया गया है।
ज्ञानी गुरु भगवंतों द्वारा अहर्निश वात्सल्यपूर्वक क्रमशः प्रशिक्षित-संवर्द्धित किये जाने पर भी कुछ शिष्यों को ज्ञान का गर्व हो जाता है। बहुश्रुत हो जाने के मद में उन्मत्त होकर वे गुरुजनों द्वारा किए गए समस्त उपकारों को भूल जाते हैं, उनके प्रति विनय, नम्रता, आदर सत्कार बहुमान आदि को ताक में रख कर उपकारी गुरुजनों के प्रति कठोरता धारण कर लेते हैं, अनादर करते हुए उनसे वितण्डावाद करते हैं, अपशब्द बोलने लग जाते हैं। निंदा और अपमान करते हैं ऐसे कुशिष्य शास्त्रोक्त समाधि का सेवन नहीं करते हैं और उन्हें आत्मशांति भी प्राप्त नहीं होती है।
दोहरी मूर्खता
(३७२) सीलमंता उवसंता संखाए रीयमाणा "असीला" अणुवयमाणस्स बिइया मंदस्स बालया।
कठिन शब्दार्थ - सीलमंता - शीलवंत '- आचार सम्पन्न, उवसंता - उपशांत, अणुवयमाणस्स - कहने वाले, बालया - मूर्खता - अज्ञानता।
भावार्थ - शीलवान्, उपशांत एवं प्रज्ञा (विवेक) पूर्वक संयम का पालन करने वाले साधुओं को 'ये अशीलवान् हैं' ऐसा कहने वाले उस मंद बुद्धि, बाल अज्ञानी की यह दूसरी मूढ़ता (मूर्खता-अज्ञानता) है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org