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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 部部都帶來部部參事部部部部密密密部部都帶來率部參參參參密部本部事部部邮事奉參參參參參參參參參參參參參
भावार्थ - जिस प्रकार से भगवान् ने अचेलत्व (लाघवत्व) के विषय में फरमाया है उसे उसी रूप में जान कर - समझ कर सब प्रकार से, सर्वात्मना सम्यक्त्व को जाने अथवा समत्व का सेवन करे। इस प्रकार बहुत वर्षों तक जीवन पर्यंत संयम में विचरण करने वाले, मुक्ति गमन के योग्य वीर पुरुषों ने जो परीषह आदि सहन किये हैं, उसे तू देख।
(३६३) आगयपण्णाणाणं किसा बाहा भवंति, पयणुए य मंससोंणिए, विस्सेणिं कह परिणाए, एस तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए त्ति बेमि।
कठिन शब्दार्थ - आगयपण्णाणाणं - आगत प्रज्ञानानं - जिनको उत्कृष्ट ज्ञान की प्राप्ति हो गई है - प्रज्ञावान्, किसा - कृश, बाहा - भुजाएं, पयणुए - बहुत कम हो जाता है, मंससोणिए - मांस और शोणित - रक्त, विस्से]ि - विश्रेणी को - संसार वृद्धि की राग . द्वेष कषाय रूप श्रेणी को, तिण्णे - तीर्ण - तिरा हुआ, मुत्ते - मुक्त, विरए - विरत। ____ भावार्थ - तपस्या से तथा परीषह सहन करने से प्रज्ञावान् मुनियों की भुजाएं कृश (दुर्बल) हो जाती है तथा उनके शरीर में मांस और रक्त बहुत कम हो जाते हैं। संसार वृद्धि की राग द्वेष कषाय रूप श्रेणी को जान कर क्षमा आदि से उसे नष्ट करके वह मुनि संसार समुद्र से तीर्ण, मुक्त एवं विरत कहलाता है-ऐसा मैं कहता हूँ।
(३६४) विरयं भिक्खु रीयंतं चिरराओसियं अरई तत्थ किं विधारए। 'कठिन शब्दार्थ - चिरराओसियं - चिरकाल तक संयम में रहते हुए, विधारए - उत्पन्न हो सकती है।
भावार्थ - विरत, प्रशस्त मार्ग में गमन करते हुए, चिर काल तक संयम में रहते हुए साधु को क्या संयम में अरति उत्पन्न हो सकती है?
(३६५) संधेमाणे समुट्ठिए, जहा से दीवे.असंदीणे।
कठिन शब्दार्थ - संधेमाणे - उत्तरोत्तर संयम स्थान से आत्मा को जोड़ता हुआ, दीवे - द्वीप, असंदीणे - असंदीन - जल बाधा से रहित।
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