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पांचवाँ अध्ययन - पांचवां उद्देशक - आचार्य की महिमा
२०३ 參华举非举參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參參 विविध आसन करना ४. ग्रामानुग्राम विहार - एक स्थान पर अधिक न रहना ५. आहार त्यागदीर्घकालिन तपस्या करना ६. स्त्री संग के प्रति मन की सर्वथा विमुख रखना। .. इन उपायों में से जिस साधक के लिए जो उपाय अनुकूल और लाभदायी हो, उसी का अभ्यास करते हुए साधक विषयेच्छा से निवृत्त हो। सभी उपायों के अन्त में आजीवन सर्वथा आहार त्याग कर ले, संलेखना संथारा कर ले किंतु स्त्री के साथ अनाचार सेवन की बात भी मन में न लाए।
॥ इति पांचवें अध्ययन का चतुर्थ उद्देशक समाप्त॥
पंचम अज्झयणं पंचमोइसो
पांचवें अध्ययन का पांचवां उद्देशक चौथे उद्देशक में एकल विहार की हानियाँ बतला कर एकल विहार का निषेध किया गया है। इस पांचवें उद्देशक में यह बताया जाता है कि साधु को सदा आचार्य के समीप ही रहना चाहिये। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
आचार्य की महिमा
(३१२) से बेमि-तंजहा, अवि हरए पडिपुण्णे समंसि भोमे चिट्ठइ उवसंतस्ए सारक्खमाणे, से चिट्ठइ सोयमज्झगए, से पास, सव्वओ गुत्ते, पास लोए महेसिणो, जे य पण्णाणमंता पबुद्धा आरंभोवरया सम्ममेयंति पासह, कालस्स कंखाए परिव्वयंति त्ति बेमि। .. कठिन शब्दार्थ - हरह - ह्रद - तालाब (जलाशय), पडिपुण्णे - परिपूर्ण, समंसि - सम, भोमे - भूमि भाग, उवसंतरए - उपशांत रज - रज (कीचड़) से रहित, सारक्खमाणे - संरक्षण-रक्षा करता हुआ, सोयमज्झगए - स्रोत के मध्य में स्थित, पण्णाणमंता - ज्ञानवान् - आगमज्ञाता, पबुद्धा - प्रबुद्ध, आरंभोवरया - आरम्भ से रहित, कालस्स - समाधि मरण रूप काल की, कंखाए - आकांक्षा करते हुए, परिव्वयंति - परिवर्जन (उद्यम) करते हैं। .
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