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________________ पांचवाँ अध्ययन - चौथा उद्देशक - परिणाम से बंध १६६ 88888888888888888888888888888888888888888 चित्तणिवाई- चित्तनिपाती - चित्त के अनुसार क्रिया करे, पंथणिज्झाई - पथनिर्ध्यायी - मार्ग को सतत देखते हुए चले, पलिबाहिरे - आज्ञा के बाहर न हो, अभिक्कममाणे - जाता हुआ, पडिक्कममाणे- लौटता हुआ, संकुचमाणे - संकोचता हुआ, पसारेमाणे - फैलाता हुआ, विणिवट्टमाणे - निवृत्त होता हुआ, संपलिमज्जमाणे - सम्यक् प्रकार से प्रमार्जन करता हुआ। भावार्थ - साधक आचार्य - गुरु में ही एक मात्र दृष्टि रखे, गुरु की आज्ञा में ही तन्मय हो जाय, उनके बताए मार्ग में ही मुक्ति माने, आचार्य (गुरु) को आगे रखकर विचरण करे अर्थात् गुरु के आदेश को सदा अपने आगे रखे या शिरोधार्य करे, उसी का संज्ञान-स्मृति सब कार्यों में रखे, उन्हीं के सान्निध्य में तल्लीन होकर रहे। मुनि यतनापूर्वक विहार करे। गुरुजनों के चित्त के अनुसार वर्तन करे। गुरु के मार्ग को देखे अर्थात् सम्यक् प्रकार से गुरु की आराधना करे। गुरु की आज्ञा के बाहर कभी न हो और प्राणियों को देख कर गमन करे। ____ वह साधु जाता हुआ, वापस लौटता हुआ, हाथ पैर आदि अंगों को सिकोड़ता हुआ, फैलाता हुआ समस्त अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त होकर सम्यक् प्रकार से परिमार्जन करता हुआ समस्त क्रियाएं करे। विवेचन - जो साधु धर्म में निपुण नहीं है तथा सत्य वस्तु को नहीं जानते हैं वे तप या संयम के अनुष्ठान में कोई भूल करने पर जब गुरु के द्वारा शिक्षा वचन दिये जाते हैं तो वे गुरु । के उस धर्ममय वचन से कुपित हो जाते हैं और कहने लगते हैं कि गुरु महाराज ने हमारा अपमान कर दिया। ऐसे क्रोधी और अभिमानी साधु गच्छ छोड़ कर बाहर चले जाते हैं जब उनके मार्ग में अनेक बाधाएं उपस्थित होती है परीषह उपसर्ग आते हैं तब वे घबरा जाते हैं, संयम से गिर जाते हैं और उनके शरीर की हानि की भी संभावना रहती है। अतः अपना आत्म-कल्याण चाहने वाले साधु को चाहिये कि वह सदा आचार्य की आज्ञा में ही विचरे। उनकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करे। इस प्रकार गच्छ में रह कर आचार्य की आज्ञानुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि आत्म-कल्याण का भागी होता है। . परिणाम से बंध (३०७) एगया गुणसमियस्स रीयओ कायसंफासं समणुचिण्णा एगइया पाणा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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