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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध )
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क्षय किया है उसी प्रकार अन्यत्र ( अन्य धर्म में) कर्म संतति का क्षय करना दुःसाध्य कठिन है । इसलिये मैं कहता हूं कि संयम परिपालन में (मोक्षमार्ग की साधना में) अपनी शक्ति का गोपन मत करो अर्थात् अपनी शक्ति को छिपाओ मत, पराक्रम करो।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में रत्नत्रय की समन्वित साधना करने की प्रेरणा की गयी है । तीर्थंकर भगवान् स्वयं फरमाते हैं कि यह आर्हत् दर्शन ज्ञान, दर्शन चारित्र रूप तथा समतामय
। ऐसे वीतराग प्रतिपादित धर्म में स्थित होकर जिस प्रकार कर्मों का क्षय किया जाता है वैसा अन्य धर्मों में नहीं है क्योंकि अन्य धर्मों में कर्मक्षय का सम्यक् उपाय नहीं बतलाया गया है। अतः तीर्थंकर भगवान् स्वयं फरमाते हैं कि मैंने भी इसी धर्म में स्थित होकर विशिष्ट तप के द्वारा कर्मों का क्षय किया है। इसलिये अन्य मोक्षार्थियों को भी ऐसा ही करना चाहिये तथा संयमानुष्ठान और तपाराधन में अपने पराक्रम को नहीं छिपाना चाहिये ।
(२६१)
जे पुट्ठाई णो पच्छाणिवाई, जे पुव्वुट्ठाई पच्छाणिवाई, जे गो षुव्वुट्ठाई णो पच्छाणिवाई, सेऽवि तारिसए सिया, जे परिण्णाय लोगमण्णेसयंति, एवं णियाय मुणिणा पवेइयं ।
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कठिन शब्दार्थ- पुव्वुट्ठाई - पूर्वोत्थायी पूर्व में साधना के लिए उद्यत, पच्छाणिवाईपश्चान्निपाती - बाद में पतित होता है, लोगं - लोक का, अण्णेसयंति - अन्वेषण करते हैं, णियाय - जान कर, मुणिणा मुनि ने केवलज्ञानी तीर्थंकर प्रभु ने, पवेइयं - कहा है। भावार्थ - जो पहले संयम साधना के लिए उद्यत होता है और बाद में संयम से पतित नहीं होता है। जो पहले संयम अंगीकार करता है और बाद में पतित हो जाता है। जो पहले भी संयम स्वीकार नहीं करता और बाद में पर्तित भी नहीं होता है। जो साधक लोक को जान कर और त्याग कर पुनः लोक का अन्वेषण करते हैं, लोकैषणा में निमग्न रहते हैं वे भी वैसे ही (गृहस्थ तुल्य ही) है।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में दीक्षित होने वाले साधकों की तीन श्रेणियां बताई है, जो इस प्रकार है१. पूर्वोत्थायी पश्चात् अनिपाती - जो मनुष्य संसार के स्वरूप को अच्छी प्रकार जान कर सिंह के समान वीरता पूर्वक गृह त्याग कर प्रव्रजित होते हैं और सिंह के समान ही संयम का पालन करते हैं। वे प्रथम भंग के स्वामी उत्तम कोटि के महात्मा होते हैं। जैसे कि - काकंदी के धन्ना अनगार, गौतमकुमार, गजसुकुमाल आदि ।
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