________________
पांचवाँ अध्ययन - प्रथम उद्देशक - कामभोगों का त्याग
१७६ 88888888888888888888888888888888888
8888888
(२७१) पासह एगे रूवेसु गिद्धे परिणिजमाणे, एत्थ फासे पुणो पुणो, आवंती केयावंती लोयंसि आरंभजीवी।
कठिन शब्दार्थ - परिणिजमाणे - नरक आदि यातना स्थानों में जाते हुए को, फासेस्पर्शों का, आवंती - जितने, केयावंती - कोई। . भावार्थ - रूप आदि विषयों में आसक्त पुरुषों को नरक आदि यातना स्थानों में जाते हुए देखो। इन्द्रिय विषयों में आसक्त वे पुरुष बार-बार इस संसार में स्पर्शों का अनुभव करते हैं यानी दुःख भोगते हैं। इस लोक में जितने कोई आरंभ जीवी - आरम्भ से जीने वाले प्राणी हैं वे सभी दुःख के भागी होते हैं।
''विवेचन - आरम्भ से जीवन निर्वाह करने वाले विषयलोलुपी पुरुष विषयों में आसक्त होकर नाना प्रकार से शारीरिक और मानसिक दुःख उठाते हैं और नरकादि गतियों में जाते हैं।
(२७२) एएसु चेव आरंभजीवी, एत्थवि बाले परिपच्चमाणे ॐ रमइ पावेहि कम्मेहिं असरणे सरणंत्ति मण्णमाणे।
कठिन शब्दार्थ - परिपच्चमाणे (परितप्पमाणे) - परितप्त होता हुआ अथवा विषय रूप पिपासा से संताप को प्राप्त होता हुआ, रमइ - रमण करता है, असरणे - अशरण को, मण्णमाणे - मानता हुआ।
भावार्थ - सावध आरम्भ करने में प्रवृत्त इन गृहस्थों में शरीर निर्वाह के लिए रहने वाले आरम्भजीवी अन्यतीर्थिक और पार्श्वस्थ आदि भी दुःख के भागी होते हैं। इस अर्हत् प्रणीत संयम को स्वीकार करके भी राग द्वेष से कलुषित चित्त वाला बाल अज्ञानी विषय तृष्णा से संतप्त होता हुआ अशरण को ही शरण मान कर पाप कर्मों में रमण करता है।
.
पाठान्तर - परितप्पमाणे।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org