SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 202
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवाँ अध्ययन - प्रथम उद्देशक - अज्ञानी जीव की मोहमूढता १७७ 8888888888888888888888888888888888 RRRRRRRRRRRRY विवेचन - प्रस्तुत सूत्रों में अज्ञानी जीव की मोह मूढ़ता का वर्णन करते हुए उसके लिए निम्न तीन विशेषण दिये हैं - १. बाल - बालक में यथार्थ ज्ञान नहीं होता है उसी प्रकार वह भी अस्थिर और क्षण भंगुर जीवन को अजर अमर मानता है उसकी यह ज्ञान शून्यता ही उसका बालत्व (बचपना) है। २. मंद - सदसद् विवेक बुद्धि का अभाव होने से वह ‘मंद' है। ३. अविजान - परम अर्थ - मोक्ष का ज्ञान नहीं होने से वह ‘अविज्ञान' है। जीव अपनी अज्ञान दशा के कारण ही इस अल्प, अस्थिर एवं तुच्छ जीवन में सुख प्राप्ति के लिए हिंसादि क्रूर कर्म करता है, बदले में दुःख पाता है और मोहवश बारबार जन्म व मृत्यु को प्राप्त होता रहता है। . (२६७) संसयं परियाणओ संसारे परिणाए भवइ, संसयं अपरियाणओ संसारे अपरिण्णाए भवइ। कठिन शब्दार्थ - संसयं - संशय को, परियाणओ - परिज्ञान हो जाता है, अपरिणाएअपरिज्ञान। भावार्थ - जिसे संशय का ज्ञान हो जाता है उसे संसार के स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। जो संशय को नहीं जानता, वह संसार को भी नहीं जानता। - विवेचन - संशय दो प्रकार का कहा गया है - १. अर्थ संशय और २. अनर्थ संशय। मोक्ष और मोक्ष का उपाय अर्थ है। मोक्ष परमपद कहा गया है अतः उसमें संशय नहीं हो सकता। मोक्ष के उपाय में संशय हो सकता है फिर भी मनुष्य की उसमें प्रवृत्ति होती है क्योंकि पदार्थ का संशय भी प्रवृत्ति का कारण होता है। संसार और उसका कारण अनर्थ है उनके संशय से भी उनसे निवृत्ति होती है क्योंकि जनर्थ का संशय भी निवृत्ति का कारण होता है अतः जो मनुष्य अर्थ और अनर्थ के संशय को जानता है उसकी हेय यानी त्यागने योग्य पदार्थ से निवृत्ति और उपादेय यानी ग्रहण करने योग्य पदार्थ में प्रवृत्ति हो सकती है और जिसको अर्थ अनर्थ का संशय नहीं होता उसकी हेय और उपादेय में निवृत्ति और प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। (२६८) जे छेए से सागरियं ण सेवए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy