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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 8888888888888888888888
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(२५६) से हु पण्णाणमंते बुद्धे आरंभोवरए, सम्ममेयंति पासह, जेण बंधं वहं घोरं परितावं च दारुणं।
कठिन शब्दार्थ - पण्णाणमंते - प्रज्ञावान्, बुद्धे - बुद्ध - तत्त्वों को जानने वाला, आरंभोवरए - आरम्भ से उपरत, बंधं - बन्ध, वहं - वध, घोरं - घोर, परितावं - परिताप, दारुणं - दारुण दुःखों को।
भावार्थ - जो भोगों से निवृत्त हो गया है वही वास्तव में प्रज्ञावान्, उत्तम ज्ञानी, तत्त्वों को जानने वाला और आरम्भ से विरत है। यह सत्य (सम्यक्) है ऐसा देखो - जानो। क्योंकि भोगासक्ति के कारण पुरुष बंध, वध, घोर परिताप और दारुण दुःखों को प्राप्त करता है।
(२६०) पलिछिंदिय बाहिरगं च सोयं, णिक्कम्मदंसी इह मच्चिएहिं।
भावार्थ - जो बाह्य (परिग्रह आदि) और अंतरंग (राग द्वेष आदि) कर्मों के स्रोतों का छेदन करता है वह इस संसार में मनुष्यों के मध्य में निष्कर्मदर्शी - मोक्षदर्शी है।
विवेचन' - जिसकी समस्त इन्द्रियों का प्रवाह विषयों या सांसारिक पदार्थों की ओर से हट कर मोक्ष की ओर उन्मुख हो जाता है वही निष्कर्मदर्शी - निष्कर्म को देखने वाला होता है।
(२६१) कम्मुणा सफलं दट्टण तओ णिज्जाइ वेयवी।
कठिन शब्दार्थ - णिजाइ - निवृत्त हो जाता है, पृथक् हो जाता है, वेयवी - वेदज्ञ - आगमों के रहस्य को जानने वाला।
भावार्थ - कर्मों के फल को देख कर वेदज्ञ - आगमों के रहस्य को जानने वाला ज्ञानी पुरुष आस्रवों का त्याग कर देता है। कर्मों से निवृत्त हो जाता है।
विवेचन - जो कर्म किये जाते हैं उनका फल अवश्य भोगना पड़ता है। यह देखकर विवेकी पुरुष कर्मों के बंध से, आस्रव से सर्वथा निवृत्त हो जाते हैं।
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