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________________ १७० आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 來來來串串串串串串串串串串串图參參參參參參參參參參參那來來來來來 ब्रह्मचर्य की महिमा (२५६) विगिंच मंससोणियं, एस पुरिसे दवए वीरे आयाणिजे वियाहिए, जे धुणाइ समुस्सयं वसित्ता बंभचेरंसि। ___ कठिन शब्दार्थ - मंससोणियं - मांस और रक्त को, विगिंच - कम कर, दविए - द्रविक - संयम वाला, आयाणिज्जे - आदानीय - आदेय (ग्रहण करने योग्य) वचन वाला, वसित्ता - निवास कर, बंभचेरंसि - ब्रह्मचर्य में। भावार्थ - शास्त्रकार फरमाते हैं कि तपस्या के द्वारा मांस और रक्त को कम कर। ऐसा पुरुष (तपस्वी) संयमी, वीर और मोक्ष गमन के योग्य होने से आदेय वचन वाला कहा गया है। वह ब्रह्मचर्य में स्थित रह कर तप के द्वारा शरीर (कर्म शरीर) को धुन डालता है। विवेचन - ब्रह्मचर्य पालन, सम्यक् चारित्र का प्रमुख अंग होने के कारण प्रस्तुत सूत्र में ब्रह्मचारी को मांस शोणित कम करने का निर्देश दिया गया है क्योंकि मांस रक्त की वृद्धि से कामवासना प्रबल होती है और उससे ब्रह्मचर्य पालन में विघ्न आने की संभावना रहती है। सांसारिक भोग विलासों से मन को हटा कर ब्रह्मचर्य व्रत में सम्यक् निवास करता हुआ तपस्वी मुनि शरीर और कर्मों को कृश कर डालता है। मोह की भयंकरता (२५७) णित्तेहिं पलिछिण्णेहिं आयाणसोयगढिए बाले, अव्वोच्छिण्णबंधणे अणभिक्कंतसंजोए। तमंसि अवियाणओ आणाए लंभो णत्थि-त्ति बेमि।। ___ कठिन शब्दार्थ - णित्तेहिं - नेत्र आदि इन्द्रियों को, पलिच्छिण्णेहिं - नियंत्रण करके, आयाणसोयगटिए - आदान स्रोत - कर्म आने के स्रोत में गृद्ध, अव्वोच्छिण्णबंधणे - कर्म बंध का छेदन नहीं कर सकता, अणभिक्कंतसंजोए - संयोगों को छोड़ नहीं पाता, तमंसि - मोह अंधकार में, आणाए - आज्ञा का, लंभो - लाभ। * इसके स्थान पर 'आताणिजे', 'आयाणिए', 'आवाणिओ', 'आताणिओ' - ये पद कहीं कहीं मिलते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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