________________
चौथा अध्ययन - तृतीय उद्देशक - क्रोध (कषाय) त्याग
१६७ 鄉鄉事聯佛聯佛聯佛聯佛聯佛事部部邮邮聯部部带脚部部邮邮部部參事 द्वारा इन्द्रिय - विषयों और कषायों को कृश करना। जिस प्रकार सूखे हुए काठ को अग्नि शीघ्र जला डालती है उसी प्रकार जो पुरुष आत्म-समाधिवान् रत्नत्रयी में उपयोग रखने वाला और राग द्वेष से रहित अनासक्त है वह तप रूपी अग्नि के द्वारा शीघ्र ही कर्म रूपी काष्ठ को जला देता है।
(२४६) विगिंच कोहं अविकंपमाणे, इमं णिरुद्धाउयं संपेहाए।
कठिन शब्दार्थ - विगिंच - त्याग करके, अविकंपमाणे - अविकम्प - कम्प रहित होकर, णिरुद्धाउयं - परिमित आयु वाला, संपेहाए - सम्प्रेक्षा कर। . भावार्थ - यह मनुष्य जीवन अल्प आयुष्य वाला है, यह गहराई से विचार करता हुआ साधक कम्प रहित (अकम्पित) होकर क्रोध का त्याग करे।
क्रोध (कषायं) त्याग
(२५०) दुक्खं च जाण अदुवागमेस्सं, पुढो फासाई च फासे, लोयं च पास, विप्फंदमाणं।
कठिन शब्दार्थ - आगमेस्सं - भविष्य में उत्पन्न होने वाले दुःखों को, विप्कंदमाणं - दुःखों को दूर करने के लिए इधर-उधर भागते हुए। . भावार्थ - क्रोधादि से उत्पन्न होने वाले वर्तमान में अथवा भविष्य के दुःखों को जानो। क्रोधी पुरुष भिन्न-भिन्न स्पशों को यानी नरक आदि स्थानों में विभिन्न दुःखों को प्राप्त करता है। दुःखों से पीड़ित होकर उनका प्रतिकार करने के लिए इधर-उधर दौड़-धूप करते हुए लोगों (प्राणिलोक) को देखो।
विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में क्रोध से होने वाले वर्तमान और भविष्य के दुःखों को ज्ञपरिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से छोड़ने की प्रेरणा दी गयी है।
(२५१) जे णिव्वुडा, पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिया।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org