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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध)
सुद्धे - शुद्ध अहिंसा धर्म हिंसादि से किंचित् भी मिश्रित नहीं होने से है। शुद्ध
णिइए - नित्य - अहिंसा धर्म त्रैकालिक, सार्वदेशिक और महाविदेह की अपेक्षा सदा
सर्वत्र विद्यमान होने से 'नित्य' कहा गया है।
सासए
१५४
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शाश्वत - सिद्धि गति का कारण होने से अहिंसा धर्म शाश्वत है।
धर्माचरण
(२२३)
तच्चं चेयं तहा चेयं अस्सिं चेयं पवुच्चइ ।
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कठिन शब्दार्थ - तच्छं - सत्य, तहा इस अर्हत् प्रवचन जैन दर्शन में ही।
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भावार्थ - भगवान् ने जो धर्म प्रतिपादित किया है वह सत्य है, तथ्य है यह इस अर्हत् प्रवचन (जैन दर्शन) में सम्यक् प्रकार से कहा जाता है।
विवेचन - भगवान् ने जगत् जीवों के कल्याण के लिए जो धर्म फ़रमाया है, वह सर्वथा सत्य है। वस्तु का जैसा स्वरूप है वैसा ही भगवान् ने फरमाया है, उसमें किञ्चिन्मात्र भी अन्यथा नहीं है। इस प्रकार पदार्थ का यथार्थ वर्णन इस जैन दर्शन में ही पाया जाता है, अन्य दर्शनों में नहीं, क्योंकि उनमें पूर्वापर विरुद्ध बातें पाई जाती हैं।
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तथारूप, च
दिट्ठेहिं णिव्वेयं गच्छिज्जा ।
भावार्थ - दृष्ट विषयों से विरक्त हो जाय ।।
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और, चेयं
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वह,
अस्सिं -
. (२२४)
तं आइतु ण णि ण णिक्खिवे, जाणित्तु धम्मं जहा तहा ।
कठिन शब्दार्थ - आइतु - ग्रहण करके, ण णिहे गोपन न करे, ण णिक्खिवे त्याग न करे, जहा तहा - यथार्थ ।
भावार्थ - साधक उस धर्म को ग्रहण करके उसके आचरण में अपनी शक्ति का गोपन न करे और न ही उसका त्याग करे। धर्म का जैसा स्वरूप है वैसा जान कर उसका आचरण करे ।
(२२५)
तथारूप
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