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________________ तीसरा अध्ययन - चतुर्थ उद्देशक - शस्त्र-अशस्त्र १४७ अयोगी केवली नामक चौदहवें गुणस्थान तक पहुँच जाता है। अथवा पर - अनंतानुबंधी कषाय क्षय से पर - दर्शन मोह - चारित्र मोह का क्षय अथवा घातीकर्मों का क्षय कर लेता है अथवा पर - तेजोलेश्या से पर - उत्तरोत्तर (विशिष्टतर) शुभ लेश्या को प्राप्त कर लेता है। (२१३) एगं विगिंचमाणे पुढो विगिंचइ पुढो विगिंचमाणे एगं विगिंचइ। कठिन शब्दार्थ - विगिंचमाणे - क्षय करता हुआ, विगिंचइ - क्षय करता है। भावार्थ - क्षपक श्रेणी पर आरूढ़ साधक एक अनंतानुबंधी कषाय का क्षय करता हुआ पृथक् - अन्य दर्शनावरण आदि का भी क्षय कर लेता है। पृथक् - अन्य का क्षय करता हुआ एक अनंतानुबंधी कषाय का क्षय कर देता है। (२१४) सड्डी आणाए मेहावी। भावार्थ - वीतराग की आज्ञा में श्रद्धा रखने वाला मेधावी होता है। . ... (२१५) लोगं च आणाए अभिसमेच्चा अकुओभयं। . कठिन शब्दार्थ - लोगं - लोक (षड्जीवनिकाय रूप या कषाय रूप लोक) को, अभिसमिच्चा - जान कर, अकुओभयं - अकुतोभय - पूर्ण अभय - किसी को भय नहीं देता। भावार्थ - साधक जिनवाणी के अनुसार छह काय जीव रूप लोक अथवा कषाय रूप लोक को जान कर त्याग देता है वह अकुतोभय - पूर्ण अभय हो जाता है, वह किसी भी प्राणी को भय नहीं देता है। शस्त्र-अशस्त्र (२१६) अस्थि सत्थं परेण परं, णत्थि असत्थं परेण परं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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