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________________ १४२ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 參參參參參參參參參參參參參串串串串串单独举參參參參參參參參參參參參密密密密參參參參參參參參參參 भावार्थ - हे पुरुष! तू अपनी आत्मा का ही निग्रह कर यानी धर्म मार्ग से विमुख जाती हुई आत्मा को रोक, इस प्रकार करने से तू दुःखों से छूट जायगा। सत्य ग्रहण की प्रेरणा (२०५) पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणाहि, सच्चस्साणाए से उवट्ठिए मेहावी मारं तरइ सहिओ धम्ममायाय सेयं समणुपस्सइ। । समणुपस्सइ। : कठिन शब्दार्थ - सच्चमेव - सत्य - संयम को ही, समभिजाणाहि - भलीभांति जानकर, सच्चस्साणाए - सत्य की आज्ञा में, मारं - मृत्यु को, तरइ - तिर जाता है, सहिओ - ज्ञानादि से युक्त, धम्ममायाय - धर्म को ग्रहण करके, सेयं - श्रेय - आत्महित को, समणुपस्सइ- सम्यक् प्रकार से देखता है। __भावार्थ - हे पुरुष! तू सत्य संयम को ही भलीभांति समझ। सत्य की आज्ञा में उद्यमवान् अर्थात् सत्य की आराधना करने वाला मेधावी पुरुष मृत्यु को यानी जन्म-मरण के कारणभूत संसार को तिर जाता है। ज्ञानादि से युक्त पुरुष, श्रुत और चारित्र रूप धर्म को ग्रहण करके श्रेय - आत्महित को सम्यक् प्रकार से देखता है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में परम सत्य को ग्रहण करने की प्रेरणा दी गई है। टीकाकार ने सत्य के निम्न अर्थ किये हैं - १. प्राणी मात्र के लिए हितकर - संयम २. गुरु साक्षी से गृहीत पवित्र संकल्प ३. सिद्धान्त या सिद्धान्त प्रतिपादक आगम। अर्थात् साधक किसी भी परिस्थिति में सत्य (संयम) का त्याग नहीं करे। सत्य - स्वीकृत संकल्प एवं सिद्धान्त का पालन करे। (२०६) दुहओ, जीवियस्स परिवंदण-माणणपूयणाए, जंसि एगे पमायंति। कठिन शब्दार्थ - दुहओ - द्विहतः (दुर्हतः) दो प्रकार से, दोनों से, राग और द्वेष से, पमायंति - प्रमाद करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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