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________________ १४० आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 醉醉帶來够单独部部幹部來參卿參傘傘傘傘傘參參參參參參參參參部部部邮邮事部部來參 भावार्थ - तथागत अर्थात् फिर संसार में नहीं आते ऐसे सिद्ध भगवान् न तो अतीतकाल के सुख को स्मरण करते हैं और न आगामी काल के सुख की इच्छा करते हैं। इसी प्रकार कर्मों का क्षय करने के लिए उद्यत बना तपस्वी महर्षि साधक भी इसी मार्ग का अनुसरण करता है, अर्थात् अतीत के सुख का स्मरण नहीं करता और भविष्य के स्वर्गादि सुख पाने की इच्छा नहीं करता है किंतु पूर्व संचित कर्मों का शोषण करके उन्हें क्षीण कर देता है। विवेचन - इस जगत् में बहुत से पुरुष वर्तमान को ही देखते हैं, भूत और भविष्य का . विचार नहीं करते। वे यह नहीं जानते हैं कि हम कहां से आये हैं और कहां जायेंगे? तथा हमारी क्या दशा होने वाली है? ऐसा विचार वे नहीं करते हैं इसलिए वे संसार परिभ्रमण करते रहते हैं। ____ जो आठों कर्मों का क्षय करके मोक्ष में चले जाते हैं वे फिर कभी संसार में नहीं आते हैं। ऐसे सिद्ध भगवान् और उनके मार्ग का अनुसरण करने वाले पुरुष गत काल के सुखों का स्मरण नहीं करते और आगामी काल के सुखों की चाह भी नहीं करते हैं। वे भी कर्मक्षय कर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। रति और अरति (२०१) का अरई? के आणंदे? एत्थंपि अग्गहे चरे। सव्वं हासं परिच्चज, अलीणगुत्तो परिव्वए। कठिन शब्दार्थ - अरई - अरति, आणंदे - आनंद, अग्गहे - अग्रह - ग्रहण रहितअनासक्त होकर, चरे - विचरण करे, हासं - हास्य को, परिच्चज्ज - त्याग कर, अलीणगुत्तोअलीनगुप्त - मन और इन्द्रियों का कछुए की तरह गोपन कर। भावार्थ - योगी के लिये अरति क्या है और आनंद क्या है? इन अरति और आनंद के विषय में बिल्कुल ग्रहण रहित होकर - अनासक्त होकर विचरण करे। वह सभी प्रकार के हास्य को त्याग करके जितेन्द्रिय एवं मन वचन काया से गुप्त होकर संयम का पालन करे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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