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आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) ®®®®®®®®®®®®RRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRRE
भावार्थ - हे वीर! ग्रंथ (परिग्रह) को ज्ञ परिज्ञा से जान कर प्रत्याख्यान परिज्ञा से आज ही अविलम्ब त्याग दे। इसी प्रकार इन्द्रिय तथा मन का दमन करके विषय संग रूप संसार के स्रोतों को जानकर एवं त्याग कर संयम का पालन कर। इस संसार में मनुष्य भव धर्म श्रवण आदि संसार सागर से तिरने का सुअवसर प्राप्त कर के मनुष्यों को प्राणियों के प्राणों का समारम्भ नहीं करना चाहिये। ऐसा मैं कहता हूं।
विवेचन - कर्मों से मुक्त होने या संसार सागर से पार होने का पुरुषार्थ और उसके फलस्वरूप मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य लोक में मनुष्य के द्वारा ही संभव है, अन्यत्र नहीं। ऐसा जानकर मुमुक्षु आत्मा को द्रव्य एवं भाव ग्रंथि का त्याग कर संयम मार्ग में प्रवृत्त हो जाना चाहिये और संसार को बढ़ाने के साधन हिंसा आदि का त्याग कर देना चाहिये। जो मनुष्य भव को प्राप्त कर शुद्ध श्रद्धा सहित संयम का पालन करता है वह संसार समुद्र से तिर जाता है।
|| इति तृतीय अध्ययन का द्वितीय उद्देशक समाप्त॥
तड़यं अज्झयणं तइओ उद्देसओ
तृतीय अध्ययन का तृतीय उद्देशक तीसरे अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में पाप के कड़वे फल बताते हुए उनके त्याग का उपदेश दिया गया है. और विषयासक्ति के त्याग की प्रेरणा की गयी है। प्रस्तुत तृतीय उद्देशक में पापों से बचने के लिये साधक को आत्मद्रष्टा बनने का संदेश दिया गया है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
प्रमाद-त्याग
(१९३) संधिं लोगस्स जाणित्ता। भावार्थ - लोक की संधि को यानी धर्मानुष्ठान के अपूर्व अवसर को जानकर साधक
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प्रमाद न करे।
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