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________________ १२२ आचारांग सूत्र (प्रथम श्रुतस्कन्ध) 參參參參參參參參帮帮帮帮邨率聯參部部举來參參參參參參參率部參事密部本部參事部參事部李華够参套 शंका - देव तो निर्जर और अमर कहलाते हैं, वे तो मोह-मूढ़ नहीं होते होंगे और धर्म को भलीभांति जान लेते होंगे? ____ समाधान - देवता निर्जर कहलाते हैं किंतु उनमें भी जरा का सद्भाव है क्योंकि च्यवन काल से पूर्व उनके भी लेश्या, बल, सुख, प्रभुत्व, वर्ण आदि क्षीण होने लगते हैं। यह एक तरह से जरावस्था ही है और मृत्यु तो देवों की भी होती है। शोक, भय आदि दुःख भी उनके पीछे लगे हैं इसलिये देव भी मोहमूढ़ बने रहते हैं और वे धर्म को भलीभांति नहीं जान पाते हैं। (१७०) पासिय आउरे पाणे अप्पमत्तो परिव्वए। कठिन शब्दार्थ - आउरे - आतुर - शारीरिक और मानसिक दुःख पाते हुए अथवा किंकर्त्तव्य विमूढ, अप्पमत्तो - अप्रमत्त होकर, परिव्वए - संयम में विचरण करे। . भावार्थ - आतुर - शारीरिक और मानसिक दुःख पाते हुए प्राणियों को देख कर साधक अप्रमत्त भाव से संयम में विचरण करे। (१७१) मंता एयं, मइमं-पास। कठिन शब्दार्थ - मंता - मत्वा - मान कर, मनन पूर्वक, मइमं - मतिमान्। भावार्थ - हे मतिमान्! भाव से सुप्त प्राणियों को देखकर, गुण और दोष को मान कर (मनन पूर्वक) सुप्त मत बन। सोने का विचार मत कर। दुःखों का मूल-आरंभ (१७२) - आरंभजं दुक्खमिणंति णच्चा, माई पमाई पुण-एइ गम्भं, उवेहमाणो सहरूवेसु अंजू, माराभिसंकी मरणा पमुच्चइ। कठिन शब्दार्थ - आरंभजं - आरम्भजनित - आरंभ से उत्पन्न हुआ, माई - मायावीछल करने वाला, पमाई - प्रमादी, पुण - पुनः, बारबार, गम्भं - गर्भ को, एइ - प्राप्त करता है, उवेहमाणो - उपेक्षमाणः-राग द्वेष न करता हुआ, अंजू - ऋजु - सरल, माराभिसंकी - मृत्यु के प्रति आशंकित, पमुच्चइ - मुक्त हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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