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________________ दूसरा अध्ययन - छठा उद्देशक - अज्ञानी की दुःखपरम्परा ११७ __अज्ञानी की दुःखपरम्परा (१६४) बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे दुक्खी दुक्खाणमेव आवर्ट अणुपरियदृइ त्ति बेमि। -- ॥छटोहेसो समत्तो॥ ॥ लोगविजय णाम बीअमज्झयणं समत्तं॥ कठिन शब्दार्थ - णिहे - स्नेह करने वाला, कामसमणुण्णे - कामसमनुज्ञः-कामभोगों को मनोज्ञ मानने वाला, असमियदुक्खे - दुःख को शांत नहीं करता है, दुक्खाणमेव - दुःखों के ही, आवर्ट - चक्र में, अणुपरियदृइ - परिभ्रमण करता है। भावार्थ - बाल - अज्ञानी बार-बार विषयों में स्नेह (आसक्ति) करता है। कामभोगों को मनोज्ञ (मनोहर) समझ कर उनका सेवन करता है इसलिए वह दुःखों को शांत (शमन) नहीं कर पाता। वह शारीरिक और मानसिक दुःखों से दुःखी बना हुआ दुःखों के चक्र में ही परिभ्रमण करता रहता है। विवेचन - रागादि से मोहित और विषयों में आसक्त अज्ञानी पुरुष शारीरिक और मानसिक दुःखों से सदा पीड़ित होता हुआ संसार चक्र में परिभ्रमण करता है। अतः विवेकी पुरुष को रागादि का तथा विषय भोगों का सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। प्रस्तुत अध्ययन का सार यही है कि कषाय, रागद्वेष एवं विषय वासना ही संसार है। इनमें आसक्त रहने वाला व्यक्ति ही संसार परिभ्रमण करता है अतः इनका त्याग करना, विषय वासना में जाते हुए योगों को उस ओर से रोक कर संयम में लगाना ही संसार से मुक्त होने का उपाय है और यही लोक पर विजय प्राप्त करना है। जो व्यक्ति काम-क्रोध, राग-द्वेष आदि आध्यात्मिक शत्रुओं को जीत लेता है उसके लिए और कुछ जीतना शेष नहीं रह जाता फिर लोक में उसका कोई शत्रु नहीं रह जाता। सारा लोक - संसार उसका अनुचर - सेवक बन जाता है। यही सच्ची और सर्व श्रेष्ठ विजय है। ॥ इति दूसरे अध्ययन का षष्ठ उद्देशक समाप्त॥ . । लोक विजय नामक द्वितीय अध्ययन समाप्त। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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