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________________ दूसरा अध्ययन - पांचवाँ उद्देशक - देह की अशुचिता १०१ 傘傘傘事事部部脚部部參事部部部部參參參參參參參參參參參帶來華參參非事事部部參 विवेचन - यह मनुष्य जन्म ज्ञानादि की प्राप्ति का, आत्म विकास करने का तथा अनंत आत्म-वैभव प्राप्त करने का स्वर्णिम अवसर है, ऐसा जानकर जो विवेकी मनुष्य विषय वासना का त्याग कर देता है वही पुरुष इस जगत् में वास्तविक वीर है तथा जो पुरुष द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के बंधनों से स्वयं मुक्त है वही दूसरों को बंधन से मुक्त होने का उपदेश करता है, वही पुरुष वीर है। देह की अशुचिता (१३४) जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो। कठिन शब्दार्थ-- अंतो - अंदर, बाहिं - बाहर, जहा - जैसे, तहा - वैसे। भावार्थ - यह शरीर जैसा अंदर से है वैसा बाहर है और जैसा बाहर है वैसा अंदर है। . (१३५) अंतो-अंतो पूइदेहंतराणि पासइ पुढोवि सवंताई पंडिए पडिलेहाए। कठिन शब्दार्थ - पूइदेहंतराणि - शरीर के भीतर देह की अवस्था को, सवंताई - स्रवते हुए - झरते हुए, पडिलेहाए - प्रत्यवेक्षण करें - देखें। भावार्थ -. साधक, इस शरीर के अंदर-अंदर अशुद्धि भरी हुई है, इसे देखें। शरीर से झरते हुए अनेक अशुचि - स्रोतों को देखें। इस प्रकार पंडित पुरुष शरीर की अशुचिता को अच्छी तरह देखें। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में शरीर की अशुचिता का वर्णन किया गया है। यह शरीर जैसा अंदर में अशुचि (मल, मूत्र, रुधिर, मांस, अस्थि, मज्जा, शुक्र, वीर्य आदि) से भरा हुआ है वैसा ही अशुचिमय बाहर भी है। शरीर के इन्द्रिय रूपी नौ दरवाजे हैं। इन दरवाजों से प्रतिक्षण अशुचि झरती रहती है। ऐसे अपवित्र पदार्थों से पूर्ण और नश्वर इस शरीर के तत्त्वों को जान कर पंडित पुरुष शरीर के प्रति रही हुई आसक्ति एवं ममत्व भाव का त्याग करे। ___जहा अंतो तहा बाहिं ....... का एक अर्थ यह भी होता है कि साधक जैसे अंदर के बंधनों को तोड़ता है वैसे ही बाहर के बंधनों को भी तोड़ता है और जैसे वह बंधु बांधवादि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004184
Book TitleAcharang Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages366
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size7 MB
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