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दूसरा अध्ययन - चौथा उद्देशक - विषयासक्त प्राणी की दुर्दशा ८५ 8888888
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बीअं अज्झयणं चउत्थोहेसो
द्वितीय अध्ययन का चौथा उद्देशक लोक विजय नाम द्वितीय अध्ययन के तृतीय उद्देशक में विषयभोगों में आसक्त नहीं रहने का उपदेश दे कर इस चतुर्थ उद्देशक में सूत्रकार भोगों की भयंकरता का वर्णन करते हुए भोगासक्त जीवों की दुर्दशा का वर्णन करते हैं। इस उद्देशक का प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं - _ विषयासक्त प्राणी की दुर्दशा
(१०२) तओ से एगयां रोगसमुप्पाया समुप्पजंति।
कठिन शब्दार्थ - रोगसमुप्पाया - रोग-उत्पात, समुप्पजंति - उत्पन्न हो जाते हैं। .. भावार्थ - विषयभोग में आसक्त रहने से उस विषयासक्त पुरुष को कभी रोग उत्पन्न हो जाते हैं।
(१०३) जेहिं वा सद्धिं संवसइ, ते वा णं एगया णियया पुट्विं परिवयंति। सो वा ते णियए पच्छा परिवइजा, णालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा, तुमं पि तेसिं णालं ताणाए वा सरणाए वा। . कठिन शब्दार्थ - संवसइ - रहता है, णियया - निजक-स्वजन-स्नेही, परिवयंति - तिरस्कार एवं निंदा करते हैं।
भावार्थ - वह जिनके साथ रहता है रोगग्रस्त होने पर वे ही स्वजन पहले उसका तिरस्कार एवं निंदा करने लगते हैं बाद में वह भी उनका तिरस्कार एवं निंदा करने लगता है। ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि वे स्वजन आदि तुझे त्राण देने में, शरण देने में समर्थ नहीं हैं और तुम भी उनके लिए त्राण या शरण रूप नहीं हो सकते हो।
विवेचन - विषय-भोग, दुःख रूप हैं। उनमें आसक्त प्राणी को अनेक प्रकार के रोग
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