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________________ ४५६ अनुयोगद्वार सूत्र गोत्र कर्म के लिए प्रयुक्त है। गोत्र कर्म के उदय से जीव सुभग - उत्तम दृष्टि से देखे जाने वाले तथा दुर्भग - तुच्छ या हीन दृष्टि से देखे जाने वाले और उच्च, नीच आदि बनते हैं। गोत्र कर्म यहाँ शंख के साथ उसके व्यक्तित्वानुरूप भाव से जुड़ा है। (१४८) वक्तव्यता के भेद से किं तं वत्तव्वया? . वत्तव्वया तिविहा पण्णत्ता। तंजहा - ससमयवत्तव्वया १ परसमयवत्तव्वया २ ससमयपरसमयवत्तव्वया ३। शब्दार्थ - वत्तव्वया - वक्तव्यता, ससमयवत्तव्वया - अपने सिद्धांत के अनुरूप कथन-प्रतिपादन, परसमयवत्तव्वया - दूसरों के सिद्धांत के अनुसार प्रतिपादन। भावार्थ - वक्तव्यता के कितने प्रकार हैं? वक्तव्यता तीन प्रकार की कही गई है, जैसे - १. स्वसमय वक्तव्यता २. परसमय वक्तव्यता तथा ३. स्वसमय-परसमय-वक्तव्यता। विवेचन - वक्तव्य शब्द वच् धातु के आगे तव्यत् प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है। इस प्रकार यह तव्यत् प्रत्ययान्त कृदन्त रूप है। वच् धातु बोलने के अर्थ में है। "वक्तुं योग्यं - वक्तव्यम्" अर्थात् जो बोलने योग्य, कथन करने योग्य होता है, उसे वक्तव्य कहा जाता है। वक्तव्यस्य भावो वक्तव्यता - वक्तव्य के आगे भाववाचक 'ता' प्रत्यय जोड़ने से वक्तव्यता रूप बनता है। जिसका अर्थ अपेक्षित भाव का कथन, प्रतिपादन या निरूपण है। से किं तं ससमयवत्तव्वया? ससमयवत्तव्वया - जत्थ णं ससमए आपविजइ, पण्णविजइ, परूविजइ, दंसिजइ, णिदंसिजइ, उवदंसिज्जइ। सेत्तं ससमयवत्तव्वया। भावार्थ - स्वसमय वक्तव्यता का क्या स्वरूप है? जहाँ (अविसंवादपूर्वक) अपने सिद्धान्त का आख्यान, प्रज्ञापन, प्ररूपण, दर्शन, निर्दर्शन एवं उपदर्शन किया जाता है, उसे स्वसमय-वक्तव्यता कहा जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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