________________
४१६
अनुयोगद्वार सूत्र
'दृश्यते अनेन इति दर्शनम्' - किसी पदार्थ के संबंध में जब एकाएक दृष्टि पड़ती है, तब उसका अनाकार - वैशिष्ट्य रहित सामान्य बोध होता है।
'किसी वस्तु का बोध प्राप्त करने के दो मार्ग हैं - एक मार्ग ऐक्य - एकतामूलक है तथा दूसरा मार्ग अनैक्य - अनेकतामूलक है। एकतामूलक का आशय किसी वस्तु को सामष्टिक रूप में या एक रूप में जानना है। यह सामान्यग्राही बोध है। इसमें ज्ञेय वस्तु का सामान्य या साधारण रूप स्वायत्त होता है। जब उसी वस्तु का भिन्न-भिन्न रूप में उसकी विशेषताओं के साथ बोध करते हैं तब 'दृश्यते' का स्थान 'ज्ञायते' ले लेता है, उसे ज्ञान कहा जाता है। भिन्न-भिन्न या विशिष्ट स्थितियों को परिज्ञात किए जाने के कारण इसे साकार - आकारयुक्त- . भेदयुक्त - वैशिष्ट्ययुक्त कहा जाता है।
जिस प्रमाण का संबंध दर्शन से है, अथवा जो दर्शन द्वारा प्रमाणित या सिद्ध किया जाता है, वह दर्शन प्रमाण है। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन भेद आदि मूल पाठ में स्पष्ट हैं।
चारित्रगुण प्रमाण से किं तं चरित्तगुणप्पमाणे?
चरित्तगुणप्पमाणे पंचविहे पण्णत्ते। तंजहा - सामाइयचरित्तगुणप्पमाणे १ छेओवट्ठावणचरित्तगुणप्पमाणे २ परिहारविसुद्धियचरित्तगुणप्पमाणे ३ सुहुमसंपरायचरित्तगुणप्पमाणे४ अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे ५।
सामाइयचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - इत्तरिए य १ आवकहिए य २। ____ छेओवट्ठावणचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - साइयारे य १ णिरइयारे य। ___ परिहारविसुद्धियचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - णिव्विसमाणए य १ णिव्विट्ठकाइए य २।
सुहुमसंपराय-चरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - संकिलिस्समाणए य १
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org