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________________ वनस्पतिकायिक जीवों के बद्ध-मुक्त शरीर ओरालियबद्धेल्लएहिं पयरं अवहीरइ असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं कालओ, खेत्तओ अंगुलपयरस्स आवलियाए असंखिज्जइभागपडिभागेणं । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा । वेडव्वियआहारगसरीरा बद्वेल्लया णत्थि । मुक्केल्लया जहा ओहिया ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा तेयगकम्मगसरीरा जहा एएसिं चेव ओरालियसरीरा तहा भाणियव्वा । जहा इंदियाणं तहा तेइंदियचउरिंदियाण वि भाणियव्वा । भावार्थ - हे भगवन्! द्वीन्द्रियों के कितने औदारिक शरीर कहे गए हैं? हे आयुष्मन् गौतम! दो प्रकार के बतलाए गए हैं १. बद्ध और २. मुक्त । उनमें जो बद्ध हैं, वे असंख्यात हैं। वे कालतः असंख्यात उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी द्वारा अपहृत होते हैं। क्षेत्रतः ये असंख्यात श्रेणी प्रमाण हैं, जो प्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । इन श्रेणियों की विष्कंभसूची असंख्यात योजन कोटाकोटि परिमित है । यह विष्कंभसूची असंख्यात श्रेणियों की वर्गमूल रूप हैं । द्वीन्द्रियों के बद्ध औदारिक शरीरों द्वारा यदि प्रतर अपहृत किया जाता है तो असंख्यात उत्सर्पिणी - अवसर्पिणी काल में अपहृत होता है तथा क्षेत्रतः अंगुलमात्र प्रतर और आवलिका के असंख्यातवें भाग - प्रतिभाग से अपहृत होता है। मुक्त औदारिक शरीरों के विषय में सामान्य औदारिक शरीरों के समान जानना चाहिये । तैजस- कार्मण शरीरों के संदर्भ में भी औदारिक शरीरों की भांति ज्ञातव्य है । ३८१ ( अतः ) जिस प्रकार द्वीन्द्रियों के विषय में ऊपर वर्णन किया गया है, उसी प्रकार का विवेचन त्रीन्द्रिय- चतुरिन्द्रिय के विषय में भी भणनीय है। विवेचन आकाश श्रेणी में रहे हुए समस्त प्रदेश असंख्यात होते हैं, जिनको असत्कल्पना से ६५५३६ समझ लें। ये ६५५३६ असंख्यात के बोधक हैं। इस संख्या का प्रथम वर्गमूल २५६, दूसरा वर्गमूल १६, तीसरा वर्गमूल ४ तथा चौथा वर्गमूल २ हुआ । कल्पित ये वर्गमूल असंख्यात वर्गमूल रूप हैं। इन वर्गमूलों का जोड़ करने पर ( २५६+१६+४+२=२७८) दो सौ अठहत्तर हुए । यह २७८ प्रदेशों वाली वह विष्कम्भसूची है। अब इसी शरीर प्रमाण को दूसरे प्रकार से बताने के लिए सूत्र में पद दिया है .... पयरं अवहीर असंखेजाहिं उस्सप्पिणि - ओसप्पिणीहिं कालो' - अर्थात् द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध औदारिक शरीरों से यदि सम्पूर्ण प्रतर खाली किया जाए तो असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों के समयों से वह समस्त प्रतर द्वीन्द्रिय जीवों के बद्ध Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
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