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जीवोदय निष्पन्न के भेद
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जीवोदयणिप्फण्णे अणेगविहे पण्णत्ते। तंजहा- णेरइए, तिरिक्खजोणिए, मणुस्से, देवे, पुढविकाइए जाव तसकाइए, कोहकसाई जाव लोहकसाई, इत्थीवेयए, पुरिसवेयए, णपुंसगवेयए, कण्हलेसे जाव सुक्कलेसे, मिच्छादिट्ठी, सम्मदिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी, अविरए, असण्णी, अण्णाणी, आहारए, छउमत्थे सजोगी, संसारत्थे, असिद्धे। सेत्तं जीवोदयणिप्फण्णे।
शब्दार्थ - कोहकसाइ - क्रोधकाषायिक, इत्थीवेइए - स्त्रीवेदिक, कण्ह - कृष्ण, मिच्छदिट्ठी - मिथ्यादृष्टि, सम्म - सम्यक्, अविरए - अविरत, असण्णी - असंज्ञी, अण्णाणी - अज्ञानी, आहारए - आहारक, छउमत्थे - छद्मस्थ, सजोगी - सयोगी, संसारत्थेसंसारस्थ।
भावार्थ - जीवोदय निष्पन्न के कितने प्रकार हैं?
जीवोदय निष्पन्न के अनेक प्रकार निरूपित हुए हैं - जैसे - नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य, देव, पृथ्वीकायिक यावत् त्रस्कायिक, क्रोधकाषायिक यावत् लोभकाषायिक, स्त्रीवेदिक, पुरुषवेदिक, नपुंसकवेदिक, कृष्ण लेश्या युक्त यावत् शुक्ल लेश्यायुक्त, मिथ्यादृष्टि, सम्यक्दृष्टि, सम्यक्मिथ्यादृष्टि, अविरत - विरति रहित, असंज्ञी, अज्ञानी, आहारक, छद्मस्थ, सयोगी, संसारस्थ एवं असिद्ध - ये जीवोदय निष्पन्न भाव हैं।
यह जीवोदयनिष्पन्न का निरूपण है।
विवेचन - जीवोदय निष्पन्न के भेदों में तीन दृष्टियाँ बताई है। यद्यपि तीनों दृष्टियाँ श्रद्धानचेतना युक्त होने से वे अरूपी होने से यहाँ पर नहीं होकर क्षायोपशमिक, औपशमिक एवं क्षायिक भाव में होनी चाहिये किन्तु यहाँ इन्हें औदयिक भाव में लिया गया है इसका कारण इस प्रकार समझा जाता है - यहाँ पर 'दृष्टि' शब्द से भगवती सूत्र शतक १२ उद्देशक ५ में अरूपी के भेदों में तीन दृष्टियों को बताया गया है वह यहाँ पर नहीं समझना चाहिये। मिथ्यात्व मोह, सम्यक्त्व मोह एवं मिश्र मोह के उदय से जो विकृति होती है उसे ही यहाँ पर दृष्टि शब्द से समझना चाहिये। क्योंकि उदय निष्पन्न के सभी भेद कर्म उदयजन्य होने से रूपी ही होते हैं। अतः यहाँ पर दृष्टि शब्द से भी मिथ्यात्व मोह आदि की उदयजन्य अवस्थाओं को ही समझना चाहिये।
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