SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुगम-निरूपण - अन्तर निरूपण ८७ एक द्रव्य की प्रतीति - अपेक्षा से (वे) संख्येय भाग का स्पर्श नहीं करते, असंख्येय भाग का स्पर्श करते हैं, संख्येय भागों, असंख्येय भागों और समस्त लोक का स्पर्श नहीं करते। नाना - अनेक द्रव्यों की अपेक्षा से वे सर्वलोक का स्पर्श करते हैं। इसी प्रकार अवक्तव्य द्रव्यों का भी वर्णन समझ लेना चाहिये। (८६) ५. काल-प्ररूपण णेगमववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाइं कालओ केवनिरं होंति? एगं दव्वं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं असंखेज कालं। णाणादव्वाइं पडुच्च णियमा सव्वद्धा। अणाणुपुत्वीदव्वाई अवत्तव्वगदव्वाइं च एवं चेव भाणियव्वाइं। शब्दार्थ - कालओ - कालतः - काल की अपेक्षा से, केवच्चिरं - कितने समय तक, होंति - होते हैं, जहण्णेणं - जघन्यतः, उक्कोसेणं - उत्कृष्टतः - अधिकतम रूप में, सव्वद्धा - सार्वकालिक। भावार्थ - नैगम - व्यवहारनय सम्मत आनुपूर्वी द्रव्य काल की अपेक्षा से (अपने स्वरूप में) कितने काल पर्यन्त रहते हैं?. एक आनुपूर्वी द्रव्य जघन्यतः - न्यूनतम एक समय पर्यन्त एवं उत्कृष्टतः - अधिकतम असंख्यात काल पर्यन्त रहता है। नाना - विविध आनुपूर्वी द्रव्यों की अपेक्षा से नियमतः उनकी सार्वकालिक स्थिति है। अनानुपूर्वी द्रव्यों एवं अवक्तव्य द्रव्यों के संदर्भ में भी ऐसा ही कथनीय है। ... (८७) ६. अन्तर निरूपण णेगमववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ? एगं दव्वं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं अणं(तं)तकालं। णाणादव्वाइं पडुच्च णत्थि.अंतरं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004183
Book TitleAnuyogdwar Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_anuyogdwar
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy