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________________ समवाय १६ ७९ प्रत्याख्यानावरण - जिस कषाय के उदय से सर्व विरति रूप प्रत्याख्यान रुक जाता है अर्थात् साधु धर्म की प्राप्ति नहीं होती, उसे प्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। संज्वलन - जो कषाय परीषह या उपसर्ग आ जाने पर साधु मुनिराजों को भी थोड़ा सा जलाता है अर्थात् उन पर भी थोड़ा सा असर दिखाता है। उसे संज्वलन कषाय कहते हैं। यह कषाय सर्वविरति रूप साधु धर्म में तो बाधा नहीं पहुँचाता किन्तु सबसे ऊंचे यथाख्यात चारित्र में एवं वीतरागता में बाधा पहुँचाता है। इस प्रकार कषाय के सोलह भेद हो जाते हैं। इन प्रत्येक की उपमाएं भी दी गयी है। ठाणाङ्ग ४ के अनुसार जैन सिद्धान्त बोल संग्रह प्रथम भाग में इसका विस्तृत वर्णन है। मेरुपर्वत के सोलह नाम कहे गये हैं। यथा - १. मेरु - तिर्छा लोक के मध्य भाग की मर्यादा करने वाला होने से इसे मेरु कहते हैं। अथवा मेरु नामक देव इसका स्वामी है। इसलिये इसको मेरु कहते हैं। ___२. मन्दर - मन्दर नामक देव के योग से इसको मन्दर कहते हैं। यहाँ पर यह शङ्का हो सकती है कि फिर तो मेरु के दो स्वामी हो जायेंगे । इस शंका का समाधान टीकाकार ने इस प्रकार दिया है कि एक ही देव के दो नाम हो सकते हैं। इसलिये शङ्का को कोई स्थान नहीं है। फिर भी वास्तविक निर्णय तो बहुश्रुत ही दे सकते हैं। ३. मनोरम - अत्यन्त सुन्दर होने के कारण यह (मेरु) देवताओं के मन को भी अपने में रमण करा लेता है। ४. सुदर्शन - जाम्बूनदरूप रत्नों की बहुलता होने से जिसको देखने से मन को बड़ा सन्तोष होता है अतः यह सुदर्शन है। ५. स्वयंप्रभ - रत्नों की बहुलता होने से सूर्य आदि के प्रकाश की अपेक्षा रखे बिना ही स्वयं की प्रभा से प्रकाशित होता है। अतः यह स्वयंप्रभ है। ६. गिरिराज - मेरु पर्वत सब पर्वतों से ऊंचा है। तथा इस पर ६४ इन्द्रों के द्वारा सब तीर्थङ्कर भगवन्तों का जन्माभिषेक किया जाता है। इसलिये यह गिरिराज है। ७. रत्नोच्चय - यहाँ नाना रत्नों की उपलब्धि होती है। ८. प्रियदर्शन (शिलोच्चय) - पाण्डुशिला, पाण्डुकम्बलशिला, रक्तशिला, रक्तकम्बल शिला इन चार शिलाओं के ऊपर भरत, ऐरवत और महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों का जन्माभिषेक किया जाता हैं। यह चारों शिलाएं मेरु पर्वत के ऊपर है। इसलिये यह शिलोच्चय कहलाता है। ९. लोकमध्य - यहाँ लोक शब्द से तिरछा लोक का ग्रहण किया गया है। थाली के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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