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समवाय १५
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कहते हैं। ध्रुवराहु प्रत्येक मास के कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा यानी एकम को चन्द्रमा की कान्ति यानी प्रकाश के पन्द्रहवें भाग को आच्छादित करता है - ढकता है जैसे कि १. एकम को एक भाग २. द्वितीया को दो भाग ३. तृतीया को तीन भाग ४. चतुर्थी को चार भाग ५. पञ्चमी को पांच भाग ६. षष्ठी को छह भाग ७. सप्तमी को सात भाग ८. अष्टमी को आठ भाग ९. नवमी को नौ भाग १०. दशमी को दस भाग, ११. एकादशी को ग्यारह भाग १२. द्वादशी को बारह भाग १३. त्रयोदशी को तेरह भाग १४. चतुर्दशी को चौदह भाग और १५. अमावस्या को पन्द्रह भाग को ढक लेता है। ज्योतिष करण्ड में चन्द्रमा की सोलह कलाएं कही गई हैं। उनमें से अमावस्या के दिन पन्द्रह कला ढक जाती हैं, सिर्फ एक कला शेष रहती है। वही ध्रुवराहु शुक्लपक्ष में एक एक कला को वापिस खुली करता जाता है। जैसे कि शुक्लपक्ष की एकम को एक भाग खुला करता है। यावत् इसी क्रम से पूर्णिमा को पन्द्रह भाग खुला करता है इन सोलह कलाओं में से एक कला हमेशा खुली रहती है। शतभिषक्, भरणी, आर्द्रा, अश्लेषा, स्वाति तथा ज्येष्ठा ये छह नक्षत्र तुला संक्रान्ति में चन्द्रमा के साथ पन्द्रह मुहूर्त तक रहते हैं। विद्यानुप्रवाद नामक दसवें पूर्व की पन्द्रह वस्तु- अध्ययन कहे गये हैं। मनुष्यों के पन्द्रह योग कहे गये हैं। यथा - १. सत्य मन योग, २. असत्य मन योग ३. सत्यमृषा मन योग - मिश्र मन योग, ४. असत्यामृषा मन योग ५. सत्य वचन योग, ६. मृषा- असत्य वचन योग ७. सत्यमृषा वचन योग, ८. असत्यामृषा वचन योग ९. औदारिक शरीर काय योग १०. औदारिक मिश्र शरीर काय योग ११. वैक्रिय शरीर काय योग १२. वैक्रिय मिश्र शरीरं काय योग १३. आहारक शरीर काय योग १४. आहारक मिश्र शरीर काय योग १५. कार्मण शरीर काय योग । इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम की कही गई है। धूमप्रभा नामक पांचवीं नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति पन्द्रह सागरोपम की कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति पन्द्रह पल्योपम की कही गई है। आठवें महाशुक्र देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति पन्द्रह सागरोपम की कही गई है। महाशुक्र देवलोक के अन्तर्गत नन्द, सुनन्द, नन्दावर्त, नन्दप्रभ, नन्दकान्त, नन्दवर्ण, नन्दलेश्य, नन्दध्वज, नन्दश्रृङ्ग, नन्दसृष्ट या नन्दसिद्ध, नन्दकूट, नन्दोत्तरावतंसक, इन बारह विमानों में जो देव देवरूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह सांगरोपम कही गई है। वे देव पन्द्रह पखवाड़ों से आभ्यन्तर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को पन्द्रह हजार
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