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________________ समवाय १३ ६३ चन्द्राकार है, उसके तेरह प्रस्तट-प्रतर (पाथड़ों) के बीच में सौधर्मावतंसक विमान साढ़े बारह लाख योजन लम्बा चौड़ा कहा गया है। इसी तरह ईशानावतंसक भी साढ़े बारह लाख योजन का लम्बा चौड़ा है। जलचर तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय जीवों की साढ़े बारह लाख कुलकोडी कही गई है। प्राणियों की आयुष्य का भेद प्रभेद सहित वर्णन करने वाले प्राणायु पूर्व की तेरह वस्तु-अध्ययन कहे गये हैं। गर्भज तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय जीवों के तेरह योग कहे गये हैं वे इस प्रकार हैं - १. सत्य मन योग, २. मृषा - असत्य मन योग, ३. सत्यमृषा यानी मिश्र मन योग, ४. असत्यामृषा यानी व्यवहार मन योग, ५. सत्य वचन योग, ६. असत्य वचन योग, ७. सत्यमृषा - मिश्र वचन योग, ८. असत्यामृषा - व्यवहार वचन योग, ९. औदारिक शरीर काययोग, १०. औदारिक मिश्र शरीर काययोग, ११. वैक्रिय शरीर काययोग, १२. वैक्रिय मिश्र शरीर काययोग, १३. कार्मणशरीर काययोग। सूर्यमण्डल एक योजन के ६१ भाग में से १३ भाग ऊणा कहा गया है अर्थात् एक योजन के इकसठिये ४८ भाग का चौड़ा कहा गया है। इस रत्नप्रभा नामक पहली नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति तेरह पल्योपम की कही गई है। धूमप्रभा नामक पाँचवीं नरक में कितनेक नैरयिकों की स्थिति तेरह सागरोपम की कही गई है। कितनेक असुरकुमार देवों की स्थिति तेरह पल्योपम की कही गई है। सौधर्म और ईशान नामक पहले और दूसरे देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति तेरह पल्योपम की कही गई है। छठे लान्तक देवलोक में कितनेक देवों की स्थिति तेरह सागरोपम की कही गई है। छठे लान्तक देवलोक के अन्तर्गत वज्र, सुवन, वज्रावर्त्त, वज्रप्रभ, वज्रकान्त, वज्रवर्ण, वज्रलेश्य, वज्ररूप, वज्रश्रृङ्ग, वज्रसृष्ट या वज्रसिद्ध, वप्रकूट, वैर, वैरावर्त, वैरप्रभ, वैरकान्त, वैरवर्ण, वैरलेश्य, वैररूप, वैरश्रृङ्ग, वैरसृष्ट या वैरसिद्ध, वैरकूट, वैरोत्तरावत्तंसक, लोक, लोकावर्त, लोकप्रभ, लोककान्त, लोकवर्ण, लोकलेश्य, लोकरूप, लोकश्रृङ्ग, लोकसृष्ट या लोकसिद्ध, लोककूट, लोकोत्तरावत्तंसक, इन चौतीस विमानों में जो देव देवरूप से उत्पन्न होते हैं उन देवों की उत्कृष्ट स्थिति तेरह सागरोपम की कही गई है। वे देव तेरह पखवाड़ों से आभ्यंतर श्वासोच्छ्वास लेते हैं और बाह्य श्वासोच्छ्वास लेते हैं। उन देवों को तेरह हजार वर्षों से आहार की इच्छा उत्पन्न होती है। कितनेक ऐसे भवसिद्धिक जीव हैं जो तेरह भव करके सिद्ध होंगे, बुद्ध होंगे यावत् सब दुःखों का अन्त करेंगे ।। १३॥ विवेचन - जिन क्रियाओं को करने से कर्मों का बन्ध होता है उन्हें यहाँ 'क्रियास्थान' कहा गया है। मन वचन और काया की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। वीर्यान्तराय कर्म के क्षय या क्षयोपशम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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