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समवायांग सूत्र
है। जीवादि द्रव्यों की तरह. निश्चित है। इसलिये नियत है। समय, आवलिका आदि कालवचन की तरह यह शाश्वत है। गङ्गा, सिन्धु नदी के प्रवाह में पद्मद्रह आदि की तरह अक्षय है। अर्थात् जैसे पद्मद्रह कभी खाली नहीं होता इसी प्रकार वाचना आदि देते रहने पर भी यह द्वादशाङ्ग रूप गणिपिटक कभी खाली नहीं होता। इसलिये यह अक्षय है। अढ़ाई द्वीप के बाहर के पुष्करवर समुद्र आदि का जल ज्यों का त्यों पूर्ण भरा रहता है इसी प्रकार वाचना आदि देते रहने पर भी यह गणिपिटक भी कभी व्यय (खर्च) नहीं होता है। इसलिये यह अव्यय है। जिस प्रकार जम्बूद्वीप अपने परिमाण में अवस्थित है, उसी प्रकार यह भी मर्यादा में अवस्थित है। अर्थात् ज्यों का त्यों है। आकाश की तरह नित्य है। जिस प्रकारः पञ्चास्तिकाया थी, है और रहेगी, इसी तरह यह द्वादशाङ्ग रूप गणिपिटक भी था, है और रहेगा। इसीलिये यह अचल, ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। ____ आगम के तीन भेद हैं यथा - सुत्तागमे (सूत्र रूप आगम), अत्थागमे (अर्थ रूप आगम) तदुभयागमे (सूत्र-अर्थ उभय रूप आगम) इन तीनों प्रकार के द्वादशाङ्ग रूप आगम (गणिपिटक) की आराधना करके अनन्त जीव तिर गये, वर्तमान में संख्याता जीव तिर रहे हैं
और भविष्यत् काल में अनन्त जीव तिर जायेंगे । इस द्वादशाङ्ग की विराधना करके अनन्त जीवों ने संसार सागर में परिभ्रमण किया, वर्तमान में संख्याता जीव कर रहे हैं और भविष्यत् काल में अनन्त जीव करेंगे। सूत्र रूप से जमाली ने विराधना की थी, अर्थ रूप से गोष्ठामाहिल ने विराधना की थी। पांच प्रकार का आचार का परिज्ञान करने में उद्यत किन्तु गुरु आदेश का पालन न करने वाले तथा गुरु के प्रत्यनीक (गुरु के विरोधी) द्रव्य लिङ्गधारी अनेक श्रमणों ने सूत्रार्थ उभयरूप आगम की विराधना की है। ये सब अनन्त संसार परिभ्रमण करेंगे । अतः भवभीरु मुमुक्षु आत्माओं को भगवान् की आज्ञा की आराधना करनी चाहिए और विराधना से बचना चाहिए अर्थात् विराधना कभी भी नहीं करनी चाहिए।
नोट - श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के शासन में आज्ञा की विराधना करने वाले जमाली, गोष्ठामाहिल आदि ७ निह्नव हुए हैं। जिनका वर्णन विशेषावश्यक भाष्य में बहुत विस्तार के साथ दिया गया है। उनका संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह बीकानेर के दूसरे भाग में बोल नं० ५६१ में दिया गया है। जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिए।
इस द्वादशाङ्ग गणिपिटक में अनन्त भाव- जीव पुद्गल आदि, अनन्त अभाव अर्थात् परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा सब पदार्थों का अभाव, अनन्त हेतु प्रत्येक वस्तु का
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