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________________ ३३२ समवायांग सूत्र वाले दुःखी जीवों के नगर, उद्यान, बगीचे, वनखण्ड, राजा, माता, पिता, समवसरण यानी भगवान् के समवसरण की रचना; धर्माचार्य, धर्मकथा, नगरगमन यानी गौतमस्वामी का भिक्षार्थ नगर में प्रवेश, संसारप्रबन्ध यानी भवपरम्परा का विस्तार और दुःख परम्परा के विस्तार का कथन किया गया है। दुःखविपाक में ये भाव कहे गये हैं। शिष्य प्रश्न करता है कि अहो भगवन् ! सुखविपाक सूत्र में क्या भाव फरमाये गये हैं ? गुरु महाराज उत्तर देते हैं कि सुखविपाक सूत्र में शुभ कर्मों के सुखरूप फल का भोग करने वाले सुखी जीवों के नगर, उदयान, बगीचे, वनखण्ड, राजा, माता, पिता, समवसरण यानी भगवान् के समवसरण की रचना, धर्माचार्य, धर्मकथा, इसलोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी ऋद्धि विशेष, भोगों का परित्याग, प्रव्रज्या यानी दीक्षा, श्रुतपरिग्रह यानी शास्त्रों का अध्ययन, उपधान आदि तप, दीक्षापर्याय, भिक्षुपडिमा, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान यानी आहार पानी का त्याग, पादपोपगमन संथारा कर पण्डितमरण द्वारा मृत्यु होना,फिर देवलोक में जाकर उत्पन्न होना, फिर वहाँ से चव कर उत्तम कुल में जन्म होना, फिर बोधिलाभ यानी शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति होना - जिनधर्म की प्राप्ति होना और फिर अन्त में अन्तक्रिया यानी मोक्ष की प्राप्ति होना, इत्यादि बातें कही गई हैं। सुखविपाक सूत्र में ये भाव कहे गये हैं। - दुःखविपाक सूत्र में जिन बातों का वर्णन किया गया है उनका विशेष रूप से कथन करने के लिए गुरु महाराज फरमाते हैं - प्राणातिपात-जीव हिंसा, असत्य भाषण, चोरी, मैथुन और परिग्रह यानी ममत्व भाव से उपार्जित किये हुए पापकर्मों का तथा महातीव्र कषाय, इन्द्रियप्रमाद, पापप्रयोग यानी मन वचन काया की अशुभ प्रवृत्ति और अशुभ अध्यवसाय यानी बुरे परिणामों से सञ्चित किये हुए पाप कर्मों के अशुभ फल विपाक का कथन दुःखविपाक सूत्र में किया गया है और नरक गति और तिर्यञ्चगति में अनेक प्रकार के कष्टों की परम्परा में बन्धे हुए जीवों के और मनुष्यभव में आये हुए जीवों के भी जिस प्रकार पाप कर्मों के उदय से अशुभ फल विपाक होते हैं, इन सब बातों का वर्णन दुःखविपाक सूत्र में किया गया है। नरक गति और तिर्यञ्च गति में किस प्रकार के कष्ट होते हैं सो बताया जाता है - वध यानी लाठी से मारना, वृषणविनाश यानी लिङ्ग का छेदन कर नपुंसक बनाना, नाक, कान, होठ, अंगुठा, हाथ, पैर और नखों का तथा जिह्वा का छेदन करना, अञ्जन यानी आंखों में तपी हुई लोह की शलाका डालना, बांस की अग्नि में जलाना, हाथी के पैरों नीचे रोंदना, कुल्हाड़ी से चीर कर टुकड़े करना, वृक्ष की शाखा में उलटे मुंह लटका देना, शूल से, लता से, डंडे से, लकड़ी से, शरीर के अंगों को नष्ट करना, कलकल शब्द करता हुआ अत्यन्त तपा हुआ रांगा, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004182
Book TitleSamvayang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages458
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_samvayang
File Size10 MB
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